द्वापर नगर मे द्रोण नामक एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। दरिद्रता अपने आप में किसी अभिशाप से कम नहीं होती। आधे पेट खाकर रहना और पत्नी के साथ-साथ बच्चों को भी भूख से बिलखते हुए देखना नर्क भोगने के समान है। ब्राह्मण को कभी भिक्षा अच्छी मिल जाती तो उसका सारा परिवार भरपेट भोजन करता और कभी कम या कुछ न मिलने पर भूखे पेट सोना पड़ता। उसने या उसके परिजनों ने न तो कभी अच्छे वस्त्र पहने थे और न ही कभी बढ़िया भोजन किया था। रुखी-सुखी ही उसके लिए महलो के पकवानों के समान थी।
निर्धनता के कारण वह मैला-कुचेला ही रहता था। पेट की आग बुझाने, कुछ खाने-पीने के लिए भिक्षा ही बड़ी मुश्किल से मिलती थी, तन ढकने के लिए कपडे कोन देता। उसके सिर और दाढ़ी के बाल ही नहीं बल्कि हाथ-पांव के नाख़ून भी बढ़े रहते है।
ब्राह्मण की इस दशा पर तरस खाकर उसके एक यजमान ने उसे दो हष्ट-पुष्ट बछड़े दान में दे दिए। ब्राह्मण उब बछड़ो को पाकर फुला नहीं समाया। जव वह उन बछड़ो को लेकर घर आया तो उसके परिजन बहुत प्रसन्न हुए और उस दानवीर को दिल से दुआएं देने लगे, जिसने दो हट्टे-कट्टे बछड़े दिए थे।
ब्राह्मण ने स्वयं भूखा रहकर उन बछड़ो को खूब खिलाया-पिलाया और दोनों की ऐसी सेवा की कि वे सुंदर तथा जवान बैल से दिखने लगे। दरिद्र ब्राह्मण के घर दो हट्टे-कट्टे बैल देखकर सबको उससे इर्ष्या होने लगी। उसके आसपास के लोग उसका मजाक उड़ाते हुए कहते- ‘स्वयं तो भिक्षा मांगकर गुजारा कर रहा है, इन हट्टे-कट्टे बैलों को कहाँ से खिलायेगा।’
कोई कहता-‘इन बैलों को बेच दो पंडितजी, कुछ पैसे आ जायेंगे तो आराम से दिन गुजरेंगे।’
जितने मुहं उतनी ही बातें। यह बात एक चोर के कानों मे भी पड़ी। उस चोर ने ब्राह्मण के उन दोनों बैलों को चुराने का निश्चय कर लिया और एकांत में बैठकर अपने द्वारा किए गए निश्चय को कार्यरूप देने की योजना बनाने लगा।
अच्छी तरह विचार करने के बाद चोर अपने घर गया और वहां से एक मोटा-सा रस्सा और डंडा आदि लेकर चल दिया। वह मन ही मन हवाई किले बनता हुआ चला जा रहा था। वह सोच रहा था , बैल काफी हट्टे-कट्टे और जवान है। इसको बेचने पर काफी धन मिलेगा और मैं धनवान ही जाऊंगा। अच्छे-अच्छे वस्त्र धारण करूंगा तथा नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खाऊंगा। इस नगर में सब मुझे घृणा भरी नजरों से देखते हैं, जब मै धनवान हो जाऊंगा तो लोग मेरा आदर करने लगेंगे। ब्राह्मण तो पागल है, वह दरिद्रता में पैदा हुआ हैं और दरिद्रता में ही मर जाना चाहता हैं। अगर वह बुद्धिमान होता तो इन बैलों को बेचकर अपनी दरिद्रता दूर न कर लेता।
इसी तरह सोचते-सोचते चोर एक सुनसान जगह आ पंहुचा। वहां उसे एक अत्यंत आकृतिवाला प्राणी मिला। पहले तो चोर उसे देखते ही डर गया परन्तु उसने साहस जुटाकर उस विचित्र प्राणी से उसका परिचय पूछा तो वह बोला-‘तू मुझे नहीं जनता? मैं ब्रह्मराक्षस हूँ और कई दिनों से भूखा हूँ।’
‘भूखे हो?’ चोर उस भयानक आकृतिवाले प्राणी से अत्यधिक भयभीत हो गया- ‘कहां जा रहे हो और किस खाकर ओनी भूख मिटाना चाहते हो?’ अंतिम शब्द बोलते वक्त चोर ने हाथ में पकडे डंडे पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। यह सोचकर कि अगर इस भयंकर आकृतिवाले ने उस पर हमला किया तो वह उस पर प्रहार कर सके।
‘मैं दरिद्र ब्राह्मण द्रोण को खाने जा रहा हूँ।’ राक्षस के शब्दों ने चोर के मन का भय दूर करते हुए कहा।
‘मैं एक चोर हूँ और उसी ब्राह्मण के बैलों को चुराने के लिए जा रहा हूँ।’
‘चोर-चोर मौसरे भाई’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए दोनों दुष्ट मित्रभाव से एक साथ चल पड़े। दोनों मन-ही-मन सोच रहे थे- चलो एक-दुसरे का साथ तो मिला, यह बात भी अच्छी है हम दोनों के इरादे नेक न होते हुए भी अलग-अलग हे। दोनों अपने-अपने विचारों में डूबे ब्राह्मण के घर तक आ पहुचे। वे दबे पावं ब्राह्मण के घर में जा घुसे और उसके सोने की प्रतीक्षा करने लगे।`
ब्राह्मण के सो जाने के बाद ब्रह्मराक्षस उसे खाने के लिए लपका तो चोर ने उसे रोकते हुए कहा- ‘पहले मुझे बैल ले जाने दो, उसके बाद तुम इस ब्राह्मण को खाना। अगर तुम्हारे खाने से पहले ही ब्राह्मण जाग गया तो मेरी चोरी का अभियान असफल हो जायेगा और मुझे खली हाथ लौटना पड़ेगा।
‘मगर बैलों को जब तुम चुराने लगोगे तो हो सकता हे वे चिल्लाने लगें और ब्राह्मण जाग जाये। ऐसी अवस्था में मुझे भूखों मरना पड़ेगा।’ ब्रह्मराक्षस ने चोर का विरोध करते हुए कहा।
इस प्रकार दोनों ‘पहले मैं… पहले मैं’ करते हुए आपस में उलझ गए और उन दोनों की आवाज सुनकर ब्राह्मण जाग गया। ब्राह्मणके जागते ही सबसे पहले चोर ने कहा-‘ ब्राह्मण देवता! यह राक्षस तुम्हे खाने आया है, इसलिए मैं डंडा लेकर इसे भगाने आया हूँ।’
‘यह झूठ बोलता हैं, यह चोर है और तुम्हारे बछड़े चुराने आया है।’ ब्रह्मराक्षस ने कहा।
ब्राह्मण ने ब्रह्मराक्षस को देखा तो उसके भयानक चेहरे की और देखकर डर गया।
दोनों की बातें सुनकर ब्राह्मण अपनी जान बचाने की खातिर अपने इष्टदेव को याद करने लगा तथा मंत्रो का जाप करने लगा। उसके मंत्रोच्चारण करने से बब्रह्मराक्षस तो भाग खड़ा हुआ। राक्षस के भागते ही ब्राह्मण ने पास रखी लाठी उठाई और चोर की पिठाई करने लगा। चोर अपना रस्सा और डंडा लेकर अपनी जान बचाकर भाग गया।
कथा सार
कभी-कभी शत्रु भी हितकारी सिद्ध होते हैं। चोर और राक्षस ने स्वयं एक-दुसरे का उद्येश्य बताकर ब्राह्मण को सव्शन क्र दिया। न चोर को कुछ मिला न ही राक्षस को। जबकि उद्येश्य दोनों का समान था- ब्राह्मण को नुकशान पंहुचाना।