
विन्ध्याचल के पश्चिमी क्षेत्र में मन्दविष नामक एक सर्प रहता था। जो समय बीतने पर वृद्ध होने के साथ-साथ शक्तिहीन भी हो गया था। उसके लिए प्रतिदिन अपना भोजन जुटाना काफी कठिन कार्य हो गया था। उसने अपने मन में विचार किया की कोई ऐसा उपाय सोचा जाए जिसे बैठे-बिठाए भोजन मिलता रहे।
बहुत दिमाग खपाने के पश्चात उसने एक योजना बनाई और अपनी योजना के अनुशार मेंढको से भरे तालाब के किनारे जाकर गुमसुम होकर बैठ गया। मन्दविष को इस प्रकार बैठा देकर एक मेंढक ने पूछा-‘ मामा! क्या बात है? आज कुछ उदास दिखाई दे रहे हो।’
‘ भांजे! अब तो मेरा खाना-पीना ही जाता रहा है। जब दो-चार दिन ही जीना है तो हिंसा जैसे पाप करम करने का क्या लाभ? इससे अच्छा तो भूख से तड़पकर मर जाना है। भगवद् भजन में समय लगाने और उपवास करने से कुछ तो प्रायश्चित हो जायगा।’ सर्प ने साधुत्व का अभिनय करते हुए कहा।
‘ आपको किसने बताया कि आप दो-चार दिन ही और जिएगे?’ मेंढक ने उत्सुकतावश पूछा।
सर्प ने मेंढक की उत्सुकता को भांपकर एक मनगढ़त दास्तान सुनाते हुए कहा-‘ कल मैं अपनी भूख मिटाने के लिए एक मेंढक के पीछे लपका तो वह उपासना में लीन ब्राह्मणों की एक मण्डली में घुसकर कहीं छिप गया। उसका पीछा करते हुए मैंने अज्ञानतावश एक ब्राह्मण के लड़के का अंगूठा काट लिया। ब्राह्मण ने क्रोधावेश में मुझे शाप दे दिया की जिस मेंढक भ्रम में तुमने मेरे पुत्र का अहित किया है, उन्ही मेंढको के तुम वाहन बनोगे और उसी से तुम्हारी आजीविका चलेगी। इसलिए अब मैं तुम लोगों का वाहन बनने के लिए यहां बैठा हूं।’
मेंढक मन्दविष सर्प की यह बात सुनकर काफी खुश हुआ और अपनी जाति के अन्य मेंढको को भी यह शुभ समाचार सुनाया। उस तालाब के सारे मेंढक मन्दविष की चालाकी और अपनी मूर्खता के बीच फंस गए। एक-एक करके सारे मेंढक धक्का-मुक्की करते हुए मन्दविष सर्प की पीठ पर सवार हो गए। मन्दविष ने उन्हें शीघ्रता से तालाब से बहुत दूर सूखे स्थान पर ले जाकर अपनी गति काफी धीमा कर दिया। मेंढको के मुखिया ने मन्दविष से गति धीमी पड़ जाने का कारण पूछा तो उनसे कहा-‘ भूख, थकावट और बोझ के कारण आगे नहीं बड़ा जा रहा। भूख के कारण सारा शरीर शिथिल पड़ता चला जा रहा है।’
स्थिति की विषमता को देखकर मेंढको के मुखिया ने मन्दविष से कहा-‘ अगर भूख की वजह से शरीर शिथिल पड़ रहा है तो कुछ मेंढको को खा लो।’
मन्दविष तो यही चाहता था। उसने कुछ मेंढको को खाकर अपने आपको तृप्त किया और फिर आगे चल दिया। कुछ दूर और चलने के बाद मन्दविष ही गति फिर धीमी पड़ने लगी।
‘ अब क्या हुआ?’ मेंढको के मुखिया ने मन्दविष की गति शिथिल पड़ते ही उससे पूछा।
‘ भूख और बोझ के कारण थक गया हूं’ अब और आगे नहीं बड़ा जा रहा।’ मन्दविष ने बुझे स्वर में कहा।
‘ तुम तो जानते ही हो हम पानी में रहनेवाले जीव हैं। यहां सूखे स्थान पर तो हम मर जाएंगे। जल्दी से कुछ मेंढक और खा लो और आगे बढ़ो।’ मेंढको के मुखिया ने मन्दविष को कुछ और मेंढक खाने की अनुमति दे दी।
मन्दविष ने जल्दी-जल्दी कुछ मेंढक और खा लिए। तृप्त होकर वह फिर आगे बढने लगा। उसके बाद यह चलने और रुकने का क्रम चलता ही रहा। एक समय वह भी आ गया जब सारे मेंढक मन्दविष के पेट में समा गए।
मन्दविष को मेंढको का वाहन बना हुआ देखकर दुसरे सांप ने उस पर व्यंग्य करते हुए कहा-‘ सर्प होकर मेंढको को वाहन बनना हमारी जाति के लिए अपमानजनक बात है।’
‘ मित्र! में जानता हूं की मेरे लिए यह कार्य अपमानजनक है। लेकिन में समय की प्रतीक्षा कर रहा हूं, उपयुक्त समय देखकर में फिर इस तालाब के किनारे जाऊंगा, जहा और मेंढक मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। अपनी समस्या का निदान करना कोई अपमानजनक बात नहीं होती। एक दिन में सारे मेंढक खा जाऊंगा।’ मन्दविष सर्प ने कहा और धीरे-धीरे वह उस तालाब के सारे मेंढको को खा गया।
कथा-सार
बुद्धिमान व्यक्ति तो वही है जो परिस्थिति को देखकर शत्रु को भी अपने कन्दे पर बैठाने में संकोच नहीं करता। जब बल क्षीण पड़ने लगे तो शत्रु का छल से विनाश किया जा सकता है। यही बुद्धिमता है। यदि सर्प मेंढको को झांसा देकर न फुसलाता तो, उसे भूखों मरना पड़ता। जब प्राणों पर बन आई हो, तो मान-सम्मान नहीं देखा जाता।