हिम्मतनगर में धर्मबुद्धि और कुबुद्धि मानक दो मित्र रहते थे. एक दिन कुबुद्धि ने सोचा कि मैं मुरका होने के साथ दरिद्र भी हूं, क्यों न मैं अपने मित्र धर्मबुद्धि को साथ लेकर दुश्रे देश में जाकर धन कमाने का प्रयास करूं. जब कुछ धन इकटठा हो जाएगा तो कोई-न कोई युक्ति सोचकर मित्र को ठग लूंगा. उसके बाद मैं अपना शेष जीवन सुखपूर्वक बिताऊंगा. अपने मन मैं ठग विधा का यौग बैठाकर कुबुद्धि अपने मित्र धर्मबुद्धि के पास आकर कहने कागा, ‘आपने अपने जीवन अभी तक दुसरे देशों की यात्रा नहीं की. इसलिए आपको दुसरे देशों की भाषाओं आचार-विचार और रीती-रिवाजों आदि की कुछ भी जानकारी नहीं है. जिस प्रकार धन के बिना व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता, वैसे ही बहुज्ञानी हुए बिना व्यक्ति अपने जीवन को सफल नहीं मां सकता. नए-नए स्थानों पर घुमने, ने लोगों से मिलने और नए-नए प्रदाथों का सेवन करने का सुख ही कुछ ओए है.’
‘ धन और ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?’ धर्मबुद्धि ने पूछा.
‘ मेरा विचार वही कि आप मेरे साथ विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण करें.’ कुबुद्धि ने अपनी राय प्रकट करते हुए कहा.
धर्मबुद्धि ने कुबुद्धि के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए उसके साथ शुभ मुहूर्त में प्रस्थान किया. वह दोनों अपने साथ काफी सामान लेकर गए और विभिन्न क्षेत्रों में खूब भ्रमण किया और साथ लाए सामान को मुंहमांगे दामों में बेचकर ढेर सारा धन कमा लिया. दोनों मित्र अर्जित धन के साथ प्रसन्न मन से घर की और लौटने लगे.
गांव के समीप पहूंचने पर कुबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, ‘ मेरे विचार से सारा धन गांव में लेकर चलना ठीक नहीं लोगों है. कुछ लोगों को हमसे ईष्र्या होने लगेगी तो कुछ लोग अपनी जरुरत बताकर हमसे पैसा मांगने लगेंगे. यह भी संभव है कि कोई चोर या ठग हमें लूटने की ही योजना बना डाले.’
‘ फिर हमें अपने धन की सुरक्षा के लिए क्या करना चाहिए?’ धर्मबुद्धि ने पूछा.
‘ मेरे विचार से हमें कुछ धन समीप के जंगल में किसी सुरक्षित स्थान पर गाड़ देना चाहिए जिसे जरुरत पड़ने पर निकाल लेंगे. शास्त्रों में कहा भी गया है कि धन का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे बड़े-बड़े संन्यासी, महात्मों का मन भी चंचल हो सकता है.’ कुबुद्धि ने धर्मबुद्धि को समझाते हुए कहा.
धर्मबुद्धि बेचारा भोला और सीधा-सादा था, इसलिए उसने कुबुद्धि द्वारा दी गई राय पर अपनी सहमति जताते हुए कहा, ‘तुम ठीक कहते हो मित्र , धन के लिए तो अपने भी बैरी बन जाते हैं. इसलिए हम अपने धन को इसी जंगल में किसी सुरक्षित स्थान पर गाड़ देते हैं.’
उसके बाद जंगल में एक सुरक्षित स्थान पर दोनों ने गड्ढा खोदकर, अर्जित धन को दबा दिया और अपने घर की चल दिए. धर आकर दोनों आनंदमय जीवन व्यतीत करने लगे. एक रात को अवसर पाकर कुबुद्धि गडे धन को चुपके से निकालकर अपने घर ले आया.
कुछ दिन बीतने के बाद धर्मबुद्धि ने कुबुद्धि से कहा, ‘ मुझे कुछ धन की आवश्यकता है, आप मेरे साथ चलिए.’
‘ चलो.’ कुबुद्धि ने कहा.
जहां उन्होंने धन गाड़ा था, वहां पहुंचकर खोदने पर उन्हे कुछ भी नहीं मिला. कुबुद्धि अपना सिर पिटने और रोने-चीखने का अभिनय करते हुए कहने लगा, ‘ यह गड्ढा अभी ताजा खोदा वह फिर से भरा गया लगता है. आपके मन मैं खोट आ गया है और धन निकालकर मुझे सूचना देने का यह नया ढंग आपने खोज निकाला है.’
‘ मित्र! मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता, जैसा मेरा नाम है वैसे ही मुझ में गुण भी हैं.’
‘ धूर्त! ज्यादा चतुर बनने की चेष्टा मत कर. मुझ से धोखा करके धर्मात्मा बनने का अभिनय छोड़ और मेरे साथ न्यायधीश के पास चल.’ कुबुद्धि ने धर्मबुद्धि को डाटते- फटकारते हुए कहा.
इस प्रकार दोनों लड़ते-झगडते न्यायाधीश के पास जा पहुंचे. धर्मबुद्धि और कुबुद्धि ने अपना-अपना पक्ष प्रस्तुत किया. न्यायधीश ने सत्य का पता लगाने के लिए दिव्य परीक्षा का आदेश दिया तो कुबुद्धि ने इसका विरोध करते हुए शास्त्रों की दुहाई देते हुए कहा, ‘महानुभाव! शास्त्रकारों ने स्पष्ट लिखा है कि किसी भी विवाद के निर्णय के लिए सबसे पहले लिखित प्रमाणों को देखा जाना चाहिए. लिखित प्रमाण के अभाव में गवाहों पर विश्वास किया जाना चाहिए और गवाहों के भी न मिलने पर दिव्य परीक्षण का प्रयोग करना चाहिए. हमारे विवाद में तो वृक्ष देवता साक्षी रूप में विधमान हैं. कौन साधु है और कौन चोर, वह इस विषय में स्पष्ट रूप से बता देंगे. इसलिए इस विवाद में दिव्य परीक्षा की आवश्यकता ही कहां है.’
न्यायधीश ने कुबुद्धि की आपति को स्वीकार कर लिया ओए अगले दिन प्रातःकाल वृक्ष की गवाही लेने की घोषणा कर दी.
कुबुद्धि ने घर आकर अपने पिता को सबकुछ बताते हुए कहा, ‘पिताजी! मैंने धर्मबुद्धि के हिस्से का सारा धन हमारे चुरा लिया है और अब अगर मेरी सहायता करें तो वह सारा धन हमारे पास रह सकता है. अगर आपने मेरी सहायता न की तो हमारा सारा धन भी छीन जायगा और मुझे कारावास का कठोर दंड भी भुगतना पड़ सकता है.’
कु बुद्धि का पिता भी उसी की भांति कुटिल था. एस्किये उसने अपने पुत्र के कुकर्म में उसकी सहायता करना स्वीकार कर लिया. फलतः वह कुबुद्धि की योजना के अनुसार प्रातःकाल होने से पहले ही उस व्राक्ष की एक मोटी-सी शाख पर काफी उंचाई पर चढ़कर बैठ गया. वृक्ष पर पतों का अंबार होने की वजह से वह किसी को भी दिखाई नहीं दे रहा था.
प्रातःकाल न्यायधीश ने आकर वृक्ष को संबोधित करते हुए पूछा, ‘वृक्षराज! कल तुम्हारे सामने किसी चोर ने इस जगह धन को चुराया है. इसलिए ईश्वर सूर्य, चन्द्रमा आदि नक्षत्रों, देवी-देवताओं तथा भूत-प्रेतों को साक्षी मानकर उच्च स्वर में बताएं कि धन कसने चुराया है?’
न्यायधीश के वचन सुनकर वृक्ष की उपरी शाख पर छिपकर बैठे कुबुद्धि के पिता ने कहा, ‘ ईश्वर इस बात का साक्षी है कि यहां से सारा धन धर्मबुद्धि ले गया है.’
धर्मबुद्धि यह सुनकर आश्चर्यचकित रह गया और उसने क्रोधावेश में अपने आपको और अपने ही साथ उस मिथ्यावादी वृक्ष को आग लगाने का निश्चय कर लिया. उसने वृक्ष के चारों और घास-फूंस एकटठी करके आग जलाई और उसमें कूदने लगा तो पेड़ की शाख पर छिपाकर बैठा कुबुद्धि का पिता वहां से कूदकर नीचे उतर आया और अपने पुता की साड़ी योजना न्यायधीश को बताकर पश्चाताप करते हुए कहने लगा, ‘ मुझे क्षमा कीजिए न्यायदाता, मैंने अपने पुत्र की बातों में आकर झूठ बोलने का पाप किया है. धन कुबुद्धि ने ही चुराया है. आप मुझे दंडित कीजिए न्यायदाता, मैं पापी हूं.
विद्धान न्यायाधीश ने कुबुद्धि के पिता को तो दोषमुक्त कर दिया, पर कुबुद्धि को मृत्युदंड दिया. उसे उसी वृक्ष पर लटकाकर फांसी से सी गई पर सारा धन धर्मबुद्धि को वापस लौटाने का आदेश दिया.
कथा-सार
नीच व्यक्ति अपने लाभ-हानि की चिंता न करके दूसरों के विनाश की कामना करते हैं. बुद्धिमान व्यक्ति को उपाय तो जरुर सोचना चाहिए लेकिन उसके साथ जुड़ी हानि को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए. इसलिए कोई भी उपाय सोचने से पहले यह परख लेना जरुरी होता है, कहीं उसके द्वारा सोचे गय उपाय के गर्भ में किसी प्रकार की कोई हानि तो नहीं छिपी हुई है. कुबुद्धि लाख प्रयत्न करने के बाद भी उस धन को पास न रख सका, जिस पर उसकी नजरें गड़ी थीं और अंत में दंड का भागी बना.