kamlesh-devpal

मेरा जन्म आज से अठाइस साल पहले राजस्थान की मरुभूमि में दो पहाड़ो के बीच और रेतीले टीलों के बीच बसी ढाणी राजपुरा थोब गांव में सर्दियों के मौसम में सुबह के समय में हुआ था और माँ को काफी कठिनाइया झेलनी पड़ी थी क्योकि उस समय आसपास और कोई ढाणी नहीं थी और न ही कोई चिकित्सा सुविधा थी|

परिवार में पहला नन्हा बालक होने की वजह से सबसे मुझे बहुत प्यार मिला|

जन्म के लगभग पांच वर्ष पश्चात मेरे ऊपर अनजाना दुःख टूट पड़ा था, तब तक मै अपने पापा का चेहरा तक सही से नहीं पहचानता था लेकिन वो हम तीन भाई बहनो को और मेरी बीस वर्षीय माँ को छोड़कर बहुत दूर जा चुके थे|

बचपन से ही मुझे पढ़ने का शौक था इसीलिए पुरानी किताबे और स्लेट को एक थैली में डालकर मैं ऐसे ही खेत में घूमकर आता था और कहता था की स्कूल जाकर आया हु लेकिन अफ़सोस आसपास कोई स्कूल नहीं थी तो कही जा भी नहीं सकते थे|

जब में करीब सात वर्ष का था तब हम बच्चों के साथ रेतीले टीलों पर बाहरी दुनिया से अनजान, भविष्य से बेखबर अपनी मस्ती में खेल रहे थे तब शायद कुदरत ने मुझे झकझोरने के लिए , अपनी अधूरी इच्छा को पूरी करने के लिए हमारे प्रारम्भिक शिक्षक बलवंतसिंह जी (सर) को हमारी ढाणी भेजा|

शिक्षक महोदय ने आते ही पूछा की कोई पांच वर्ष से ऊपर का हो तो विद्यालय आना है और उन्होंने मेरा नाम लिख दिया कोई भी जन्मतिथि के साथ और मेरी तो बांछे ही खिल ही गई की मैं अब स्कूल जाऊंगा| उसी समय राजीव गाँधी स्वर्ण जयंती के तहत गांव गांव ढाणी ढाणी विद्यालय खोले गए थे|

स्कूल का चरण

विद्यालय जाने की ख़ुशी में बहुत जल्दी उठा और दादाजी को चलने की जिद करने लगा और दादाजी ऊँट को लेकर आए और पकाल (ऊँट पर पानी लाने का साधन) डालकर मेरे साथ चल दिए| क्योकि स्कूल जहा शुरू हुआ था वो पानी की टंकी के पास था जहा से हम पानी लाते थे और पशुओ को पानी पिलाने के लिए जाते थे|

मै दादाजी के साथ ख़ुशी ख़ुशी उछलते कूदते हुए एक अनजान कच्चे मिट्टी के कमरे में पंहुचा और डरा सहमा सा अंदर गया क्योकि वहां पर सब नए चहरे दिख रहे थे तभी एक दो चेहरे जान पहचान के देखे तो थोड़ी सांत्वना मिली|

तभी देखा एक लड़के को सर डांट रहे थे क्योकि वो पानी की टंकी में नहा कर भीग कर वापिस आया था तो डांट सुनकर मेरे तो होश ही उड़ गए और सब ख़ुशी गायब हो गयी और मै उस कमरे को ताकने लगा जहा पर लगभग 15-20 बच्चे बैठे थे और काफी मेरी उम्र से भी बड़े थे और बाकि मेरी उम्र के ही थे, वो कमरा जेठूसिंह जी की कोठड़ी थी जो कुछ समय के लिए स्कूल चलाने के लिए दी थी|

दूसरे दिन जब मै स्कूल के लिए तैयार हुआ तो दादाजी फिर साथ चले और इस बार पहाड़ के ऊपर से लेके गए क्योकि स्कूल और मेरी ढाणी के बीच एक पहाड़ आता था और दादाजी ने पहले दिन जब मै स्कूल में था तो पुरे दिन मेहनत से पहाड़ के ऊपर से मेरे लिए रास्ता बनाया ताकि मै स्कूल जा सकू और रास्ता हर समय ख़राब हो जाता था खासकर बरसात में, तो हर साल कई बार काफी दिन मेहनत करके उसको वापिस तैयार करते थे , उनकी मेहनत और विश्वास देखकर ही मुझे पढ़ने के लिए नयी ऊर्जा और उत्साह मिलता था|

इसी तरह लगभग 1 साल हमने उस कमरे में गुजार दिया और वर्णमाला सीख ली तब सर ने कहा की हम स्कूल में शिफ्ट होंगे जहा पर 2 कमरे और 1 ऑफिस बनकर तैयार हो गया था और जब सर ने ये बोला तो एक सहपाठी रोने लग गया की मै नहीं जाऊंगा तो पूछा क्यों नहीं, तो बोला की वहा पर मेरे ऊपर कमरे के पत्थर गिर जाएंगे और हम सब हंसने लगे|

फिर एक अच्छे दिन पर हम नई स्कूल बिल्डिंग में शिफ्ट हुए और वहां पर तिलक लगाकर स्वागत किया गया केवल कुछ जातियों के बच्चों को छोड़कर क्योकि उच्च नीच का भेद कहा पीछा छोड़ता हैं |

मै बहुत खुश था की पहली बार पक्के कमरों में बैठे थे और तभी हमारी सही से पढाई भी शुरू होती है क्योकि उससे पहले स्कूल घर में चलता था तो ज्यादा सख्ती नहीं हो सकती थी|

सर ने मुझे खड़ा किया और गिनती सुनाने का बोला लेकिन मै सुना नहीं सका तो सर ने एक छांटे के साथ कल सीख कर आने का बोला और मै बहुत रोया क्योकि मै सबका लाडला था तो ये शायद मेरी पहली थपड़ थी|

तभी मेरे बड़े पापा बकरियों को पानी पिलाने आए तो सब उनको बोलने लगे की आज मै ससुराल जा रहा था अर्थात रो रहा था और सब मेरी मजाक उड़ाने लगे और मुझे बहुत बुरा लग रहा था|

रात को जब ढाणी गया तो फिर बड़े पापा को गिनती सिखाने का बोला और उनके पीछे पीछे मै बोला और गिनती सिखी और खुद पर बहुत गर्व महसूस हुआ|

फिर एक दिन एक गणित का सवाल था जो मैंने सर को बताया तो सर ने थप्पड़ मारी की गलत किया है लेकिन कुछ समय बाद वापिस बुलाया और बोला की केवल तुम्हारा सही है बाकि सबका गलत है और अगली गलती पर थपड़ नहीं मारेंगे तो मुझे सुनकर बहुत अच्छा लगा और उस थपड़ का दर्द भूल गया और इसी तरह रोजाना सर के सामने सुबह दौड़कर पैर छूना, सफाई करना , लगातार प्रतिज्ञा बुलवाना पूरी स्कूल को , पहाड़ के ऊपर बैठकर घर बनाना, सब मिलकर खेलते हुए , स्वंतत्र और गणतंत्र दिवस पर अनेक गीत गाकर और भाषण देकर और पढाई में अच्छा करते हुए कब तीन साढ़े तीन साल बीत गए पता ही नहीं चला|

चतुर्थ कक्षा के अंत तक मै अंग्रेजी पढ़ पा रहा था जो एक महान उपलब्धि थी क्योकि तीसरी क्लास में ही हमने अंग्रेजी वर्णमाला सीखी थी|

उसी तरह साल की एक स्कूल यूनिफार्म जो रोजाना उतार कर रखते थे ताकि दूसरे दिन पहन सके और पानी की कमी की वजह से बार बार धोना नहीं पड़े , वो उतार कर कारी लगायी हुई निकर पहन लेते थे और रेत में खेलने में मस्त हो जाते थे ,वो ही चप्पल पहन के स्कूल यूनिफार्म पहनकर दूसरे दिन फिर स्कूल और अगर चप्पल नये लाते थे तो पहाड़ में ही वो चप्पल छिपा देते थे ताकि चोरी न हो जाये ऐसे बहुत सारी खट्टी-मीठी यादें है लेकिन वो इस छोटे से लेख में बयां नहीं कर सकता |

फिर एक दिन दादाजी ने ध्रुव कथा की किताब लाकर दी और वो जब मैंने पढ़ा तो उसके जैसा दृढ निच्छय लेने का संकल्प लिया|

एक दिन मै दादाजी के साथ गांव में था और खेल रहा था और दादाजी ने चाय पीने के लिए बुलाया तो मैने मना किया और हमारे बुजुर्ग मंगलो बा ने बोला की अगर आज नहीं पी तो फिर कभी मत पीना और मैने बोला की नहीं पिऊंगा, और मै जो थाली भरकर चाय पीता था वो भी पानी मिलाकर और मैंने प्रण ले लिया की कभी नहीं पिऊंगा और सब बुजुर्गो के आशीर्वाद से सच में पीना बंद कर दिया|

कुछ समय पश्चात रणजीत आश्रम से देवाराम जी महाराज और अमृतरामजी पधारे और गीता का पाठ किया और मैंने देवाराम जी के पास घंटो बैठकर उनका सानिध्य लिया , उनकी शिक्षाओ ने मेरे जीवन में गहरा प्रभाव डाला|

हमारे गांव से घेवरचंद भैया नवोदय में थे जो मेरे जन्म से पहले गए थे नवोदय मे, तो मेरे दादाजी की इच्छा थी की मै भी नवल विद्यालय में जाऊ और मै भी वो ही सपने देखता था |

हमारे सर बलवंत सिंह जी ने मुझे एक बेटे के जैसा प्रेम किया और मुझे हर कदम पर प्रोत्साहित किया और सहयोग दिया और उन्होंने ही मुझे बोला की अभी से नवोदय की तैयारी करो तो मै चतुर्थ क्लास में घेवरभैया के घर से लगभग बारह साल पुराणी नवोदय की किताब और रामाराम जी सर के घर से भी किताब लेके आया और पढाई में जुट गया|

मै हमेशा दादाजी के पास ही सोता था तो रोजाना 11बजे तक मिट्टी के तेल से जलनेवाले लैंप की रौशनी में पढाई करता था और नवोदय के ही सपने देखता था की वहा ऐसा बेड होगा वगैरह वगैरह .. और जब तक मै पढता था दादाजी पास में बैठकर माला से जाप करते थे|

पांचवी शुरू होने से पहले मेरा एक हाथ टूट गया और मै सही से लिख भी नहीं पा रहा था और मेरी लेखनी बिगड़ गयी लेकिन फिर भी हमारा सफर जारी रहा|

एक दिन सर ने बोला की नवोदय के फॉर्म भरने शुरू हो गए और सर ने ही हमारे सबके आवेदन भरे, लगभग 9 मित्रों ने आवेदन किया|

पदमाराम जी (पीआर सर) सर्व शिक्षा अभियान के तहत उधर पास में ही ढाणियों में पढ़ाने आते थे तो सर ने और हम सबने बोला की रोजाना अगर थोड़ा-थोड़ा नवोदय की किताब पढ़ा सके तो पीआर सर ने रोजाना एक एक घंटा 1 महीने तक पढ़ाया , पीआर सर ने बाकि सबसे एक महीने के १०० रुपये लिए लेकिन मुझे फ्री में पढ़ाया |

पीआर सर का खेत हमारे खेत के पास ही था तो बारिश के मौसम में वो ढाणी में रहते थे तो मै किताब लेकर उनके पास भाग कर जाता था जब गणित में कही अटक जाता था , बाकी सहपाठी 1 घंटे की क्लास में ध्यान नहीं देते थे मजाक उड़ाते थे लेकिन सबके आशीर्वाद से मेरी एक ही लग्न थी की मुझे नवोदय में जाना है क्योकि वहा सब फ्री था और नहीं हुआ तो शायद मैं पढ़ नहीं पाऊ|

और ऐसे करके नवोदय के परीक्षा का दिन भी आ गया और हम सबने निच्छय किया की स्कूल में ही सोएंगे और सुबह जल्दी पीआर सर के साथ बालोतरा निकल जाएंगे|

उस दिन मेरी माँ ने 25 – 25 रुपये का प्रसाद बोला और मन्नत मांगी की मेरा नवोदय में हो जाये|

रात भर नींद ही नहीं आयी सुबह के एग्जाम को सोच सोच कर और सुबह सब मिलकर पैदल 3 किमी चलकर थोब गांव पहुंचे सुबह 8 बजे वाली बस को पकड़ सके और वहा जाकर देखा तो हमारे सर एकदम सफ़ेद कपड़े पहनकर पहले ही खड़े थे और उनको देखते ही रात की थकान दूर हो गयी और एक नयी स्फूर्ति आ गयी और मैने प्रणाम किया तो आशीर्वाद दिया और बोला की बेटा घेवरचंद के बाद इस गांव से किसी का नवोदय में नहीं हुआ और ये तुमको करना है , बिना डर के एग्जाम देना है और सर भी बोले की मैं भी साथ मैं चलूँगा तो हमको भी अपनापन महसूस हुआ|

बस से हम बालोतरा पहुंचे और नियत समय में सीनियर स्कूल में परीक्षा सेंटर पहुंच गए और हमारे दोनो सर बाहर रह गये और हमारी परीक्षा हमको अकेले ही देनी थी|

प्रश्न पत्र बाँट दिया गया और बोला की उत्तर नहीं लिखने है लेकिन मुझमें कहा इतना धैर्य था , मैने 5 -10 मिनट में 15 प्रश्न हल कर दिए लेकिन शायद प्रश्न पत्र का क्रमांक सही नहीं था तो वापिस ले लिए और मुझे बहुत दुःख हो रहा था और तभी प्रश्न पत्र सही क्रमांक के साथ वापिस बांटे, तभी मेरे पीछे बैठा था वो बोला की अरे मुझे तो हल किया हुआ मिला क्योकि मेरा पुराना पेपर उसको मिला था|

मै पूरी लग्न से वापिस लग गया और नियत समय से पहले सब पेपर हल कर दिया और ख़ुशी से बहार आया और सर को ये वाक्या सुनाया वो बोले कुछ छूटा तो नहीं और फिर मैने बालोतरा में पहली बार क्रीम का बिस्कुट खाया और सब छात्रों ने पहली बार एक ही लोटे से पानी पिया क्योकि छुआछूत जैसी बीमारी की वजह से इससे पहले तक ऐसा हो नहीं पाया था लेकिन शहर मै ऐसा संभव हो पाया|

समय बीतता गया , पांचवी का परिणाम आ गया , स्कूल से विदाई हो गयी और एक दिन थोब गांव में सर मिले और कहा की नवोदय का परिणाम आ गया तुमने देखा तो मैने कहा नहीं फिर उन्होंने एक दुकान पर पुराना पेपर निकाला और कांपते हाथो से मेरा रोल नं ढूंढ रहे थे लेकिन हमको निराशा हाथ लगी और मेरा रोल नं नहीं मिला|

सर ने रुहाँसे गले से बोला की तुझसे अपेक्षा थी लेकिन ये नहीं हो पाया, कोई बात नहीं आगे अच्छे से पढाई करना|

कुछ समय पश्चात थोब गांव में क्रिकेट की ट्रॉफी चल रही थी और चारलाई गांव से फूफाजी कानाराम जी भी आए हुए थे खेलने के लिए तो मै उनके साथ बैठा था|

तभी डाकिया महोदय वहा से गुजरे तो मैने पूछा की मेरी कोई चिठ्ठी आयी है क्या क्योकि मेरे ननिहाल से मौसी अक्सर चिठ्ठी भेजा करती थी तो उन्होंने बोला की तुम्हारे मम्मी के नाम की एक लेटर है तो मम्मी को भेज देना तो मैने बोला मम्मी तो ननिहाल है यहाँ है नहीं आप मुझे दे दीजिये तो वो बोले की तुम फाड़ दोगे, लेकिन मेरी काफी मिन्नतों के बाद वो मान गए और मै उनके साथ उनके घर गया|

जब चिठ्ठी मुझे पकड़ाई तो मै आश्चर्य से ख़ुशी मे उछल पड़ा क्योकि उसके ऊपर नवोदय लिखा हुआ था और मेरा रोल नं तो अख़बार मै भी नहीं था, मै चिठ्ठी लेकर सीधा सर के घर भागा जो पास में ही था और जब उन्होंने देखा तो उनका भी आनंद का पारा नहीं रहा और मुझे बोले अब तुम ढाणी जाओ बाकी का काम मै देखता हु|

मै झूमते झूमते क्रिकेट के मैदान मै आया और कानाराम जी को बताया तो वो मुझे कमेंटरी बॉक्स पर लेके गए और मेरा नवोदय में हुआ है ये घोषणा करवायी|

ये मेरे जीवन का सबसे सुखद पल था जो आज भी आंखो के सामने है और मेरे जीवन की प्रथम सीढ़ी को पार कर लिया था , ऐसा लग रहा था जैसे मैने गढ़ जीत लिया हो|

उसके पश्चात सर ने ही सब काम किये जैसे सब प्रमाण पत्र बनाने और फॉर्म भरना क्योकि हमारे घर में ये सब कोई करने वाला नहीं था तो उन्होंने ही एक अभिभावक की भांति ये कार्य किया|

नवोदय की बगिया

28 जून 2004 का दिन था और मैं प्रफुलित था की आज नवोदय में जाने का मौका मिलेगा| मैं, मेरी माँ , दादाजी और सर हम सब पचपदरा बस स्टैंड पर उतर कर पैदल ही नवोदय की तरफ चल पड़े , मन में आनंद की उमंगें हिलोरे ले रही थी मेरा सपना पूरा हो रहा था और नवोदय की दो मंजिला इमारते देखकर मन ख़ुशी से झूम रहा था|

हम सब ऑफिस में दाखिला लिए तो चारण सर और हिंदी मैम बैठे थे और उन्होंने जब मेरा फॉर्म देखा तो बोले की आपको तो 29 को बुलाया था आप जाओ कल आना लेकिन फिर दोनों ने वार्तालाप किया और बोला की कोई बात नहीं आज ही दे दो और फॉर्म ले लिया और फिर 1 जुलाई को आने का बोला|

फिर 1 जुलाई को मैं अपने दादाजी के साथ एक छोटी सी लोहे का बॉक्स जो मेरे पापा का था वो , पहली बार अंडर वियर बनियान ख़रीदा, टूथ पेस्ट भी पहली बार ख़रीदा , एक स्कूल यूनिफार्म की निकर और कमीज लेकर नवोदय में दाखिल हुआ|

MP हॉल में सब छात्र और उनके अभिभावक थे और मैं बहुत आनंद में था , प्राचार्य OP जलन्द्रा सर ने सबको सम्बोधित किया और बोला की 5 दिन की छुट्टि पर जा सकते हो और अभी सामान अपने सदन में रख दो|

मुझे नीलगिरि सदन मिला था और कुछ मित्रो से जान पहचान हुई जैसे खेमाराम , वीरम , नेमा और फिर नवोदय की याद में वापिस ढाणी आ गया|

5 जुलाई को मैं वापिस नवोदय गया और दादाजी के साथ घूम रहा था , मुझे सोने के लिए गद्दी नहीं मिली थी और ना ही खाने को थाली तो चारण सर को पूछा तो सर ने दादाजी को बोला की आप घर जाइये इस बच्चे का ख्याल अब से हम रख लेंगे|

शाम को रोना आ रहा था क्योकि एक तो अनजान जगह और दुसरा खाने को थाली नहीं, दादाजी भी पास नहीं और सब मेस में खाने जा रहे थे तभी एक आवाज सुनी छोटू क्यों रो रहा है खाना खाया, मैने कहा नहीं तो बोले जा मेरी प्लेट लेकर जा और जब तक तुझे ना मिले इससे खाना, मैं बहुत खुश था की मुझे बड़े भैया विरमाराम मिल गए|

नवोदय में क्लास शुरू हो चुकी थी और मैं धीरे धीरे उसके रंग में ढल रहा था , नए मित्र बन रहे थे और मेस का खाना अच्छा लगने लगा था|

गणित के सर मोहन जी एक नंबर भी कम आने पर गालों का भारत पाकिस्तान बना देते थे , बिहारी जी का विज्ञान, मेरी अंग्रेजी का संघर्ष अलग ही था बाकि छात्र जो शहरो से आये थे , प्राइवेट स्कूलों से आये थे अच्छे से समझ पा रहे थे लेकिन मैं कभी कभी मजाक का पात्र भी बन जा रहा था जैसे एक बार च का सही से उच्चारण ना कर पाने के कारण मजाक का पात्र बन गया दुसरी बार अंग्रेजी का काल का सही से वाक्य ना बना पाने के कारण।

सातवीं में जब कक्षा में चौथी रैंक लग रही थी तब भी अंग्रेजी में केवल बड़ी मुश्किल से 35 नंबर लेकर पास ही हो पा रहा था|

नवोदय में ही मैने सीखा की कैसे सबके साथ मिलकर रहना है, कैसे किसी भी परिस्थिति में जीवन में हम सहज हो सकते है|

सुबह के समय एक साथ एक ही नल पर 10 जने लाइन में नहाने के लिए , मेस के आगे खाने की लाइन में , खेल में भाग लेना, संगीत में रूचि , संगीत सर रमेश जी की कहानियां , PT सर का सुबह जल्दी उठाना और रोजाना कसरत करना , स्टेज का डर भागना, जीवन में कभी TV देखी नहीं थी तो TV देखने के लिए हर शनिवार का इंतजार करना, 20 रुपये में महीनो चला देना , एक साबुन जो नवोदय में मिलता था उसको 2 महीने चला देना, सदन का लीडर बनना , बिना भेदभाव के सबके साथ मिलजुलकर रहना , एक दूसरे के सच्चे मित्र बनना ,घर में किसी के पास महीनो में एक बार फ़ोन करना STD बूथ से, एक दूसरे के सुख दुःख को समझना ये सब होते होते कैसे उम्र बढ़ती जा रही थी पता ही नहीं चल रहा था|

जब दूसरे मित्रो को उनके घरों से मिलने आते थे तो खाने के लिए बहुत कुछ देकर जाते थे , सैकड़ो रुपये भी देकर जाते थे और हमारे माँ या दादाजी कभी कभी आते थे और 20 -30 रुपये देते थे तो लगता था की सारे संसार का सुख हमारे पास ही है क्योकि लाखो छात्र शिक्षा से वंचित है और हमको दुनिया की बेस्ट शिक्षा मिल रही है। घर जाने की भी इच्छा बहुत कम ही होती थी क्योकि घर से ज्यादा सुविधाएं वहा मिल रही थी|

नौवीं क्लास में आंध्रप्रदेश के लिए माइग्रेशन का प्रावधान था और मेरी बहुत इच्छा थी की मैं भी जाऊ और सयोंग से लोटरी में मेरा नाम भी आ गया लेकिन जब मैने माँ को बोला तो माँ ने मना कर दिया तो मैने झूठ बोला की अगर मै नहीं गया तो स्कूल से मेरा नाम काट देंगे और माँ को अनमने मन से मुझे स्वीकर्ती देनी ही पड़ी|

लगातार 6 महीने के लिए जाना था तो तैयारी भी करनी थी और उस समय हम सरवड़ी गांव में रहने के लिए आए थे और हमारा अपना घर नहीं था हम दादाजी के भाई के बेटो के घर में रह रहे थे, माँ खेती का काम करती और 80 रुपये की हाजरी पर मजदूरी कर रही थी|मैं भी काका के साथ मजदूरी पर जा रहा था ताकि खुद के लिए कुछ कपडे खरीद सकू , सबसे पहले मेरी मजदूरी थी वो छठी क्लास के बाद की थी जिसमे मुझे प्रीतिदिन 20 रुपये मिले थे लेकिन अब 70 रुपये दे रहे थे|

माँ ने रुआंसे हृदय से मुझे 500 रुपये देकर आंध्र के लिए विदा किया, हम सब नियत समय पर नवोदय के गार्डन में जाकर बैठ गए थे और सर का इंतजार कर रहे थे जो हमारे साथ चलने वाले थे तभी कोई पहली बार जींस पहन के आया था तो सबने बहुत मजाक उड़ाया| फिर एक मित्र ने पूछा सब पैसे लेकर आये और पूछने लगे सबसे की कितने लाएं , सबने हजारो में बताये लेकिन मै बताने में हिचकिचा रहा था लेकिन अनमने मन से मुझे बताने पड़े तो मित्र ने कहा कोई बात नहीं।

आंध्र की यादें

पहली बार रेल का सफर शानदार रहा और वहा रसम , इडली डोसा , पोंगल में हम रम गए| राजशेखर सर की डांट, PT सर का वहा भी गुस्सा , सबकी छुट्टियां के वक़्त मेरा हर दिन पुस्तकालय में 7-8 घंटे का वक़्त बिताने का एक अलग ही अनुभव था|

अफ़सोस के साथ मै कभी कोई खेल नहीं खेल पाया क्योकि मेरी रूचि केवल किताबे पढ़ने में ही थी, इसीलिए जनवी लेपाक्षी की हिंदी की सब पुस्तके मैने पढ़ डाली थी तब तक मैंने रामायण-महाभारत और बुद्ध चरित्र सब पढ़ लिया था|

एक वर्ष का समय लेपाक्षी आंध्र मै कैसे बीत गया पता ही नहीं चला और गर्मियों के अवकाश मै दसवीं के पढाई के साथ साथ शादी पार्टी के ऑर्डर मै जाकर पैसे कमाने का एक अलग ही अनुभव था , तब तक इंदिरा आवास योजना के साथ अपना एक कमरा भी बन चुका था|

दसवीं का साल बहुत ही शानदार रहा , सुबह 5 से लगाकर रात के 11 बजे तक बिना छुट्टीयों के पढाई , चुपके से TV देखने जाना और मेरे मित्र भूरा का मुझसे रूठना , गणित का प्रोजेक्ट जोधपुर लेके जाना , शेखावत जी सर की एक्स्ट्रा क्लासेज , एग्जाम के ऊपर एग्जाम , इंग्लिश मै एक के बाद एक टेस्ट , 2-3 बार रिवीजन और 10 वी की परीक्षा का शानदार होना और फिर 85.8% का बनना एक सुखद अनुभव रहा|

बहुत उथल पुथल के साथ ग्यारवीं में आखिरी गणित विज्ञान वर्ग ले ही लिया और एक दिन क्लास मै बैठे ही थे की प्राचार्य सर का बुलावा आया, जाते ही रावल सर बोले की कमलेशिया जयपुर जाना है परीक्षा देने इस रविवार को।

बिना सोचे समझे मै और श्रवण हिंदी सर हरीश जी के साथ बस मै निकल गए जयपुर और वहा जाकर पता चला की ये दक्षिणा फाउंडेशन का एग्जाम है जिसमे चयन होने पर IIT की कोचिंग दी जाएगी और मैने पहली बार IIT के बारे मै सुन ही लिया आखिरकार।

11वी की दिवाली की छूटियों के बाद जब नवोदय पंहुचा तो शेखावत जी सर ने बुलाया और पूछा बैंगलोर जाएगा मैंने पूछा क्यू तो बोले की तेरा वहा कहीं तो चयन हुआ है और मैने पूछा क्या वो दक्षिणा फाउंडेशन का है तो वो बोले शायद वो ही है, जा घर जाकर अपनी माँ से पूछ आ और बता की जाना है या नहीं, और फिर वो ही आंध्र वाला बहाना बनाकर माँ को मना ही लिया और दूसरे दिन वापिस बैंगलोर जाने के लिए तैयार हो गया।

दक्षिणा फाउंडेशन मे होना एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योकि पुरे भारत से केवल नवोदय के 50 छात्रों का ही चयन किया गया था।

लेटर मै लिखा था की सब कुछ यही से लेकर जाना है तो बेड, प्लेट सब मैंने पैक कर दिए, तब शेखावत जी सर बोले की महबूब अली सर प्राचार्य जी आज ही ज्वाइन किये है और उनके हाथ से ये शुभ काम हो जाये|

अली सर ने तेलुगु सर को बुलाया और कहा कल ही निकल जाओ क्योकि इसका चयन लेटरल मै हुआ है और 4 महीने की पढाई से वंचित है , तो सर टिकट निकलवाने गए तो अफ़सोस के साथ रिजर्वेशन नहीं मिला और हम सब सामान लेकर जोधपुर रेलवे स्टेशन चला गए|

लम्बा सफर था और सामान्य श्रेणी मै जाना था बहुत भीड़ थी और मैं दो हजार रुपये संभाल रहा था जो माँ ने गांव के एक अंकल चंद्रप्रकाश जी सैन से उधार लेकर दिए थे तभी भगदड़ मची और डिब्बे मै घुसने लगे और सर मेरा सामान लेकर दौड़े और मुझे डांटने लगे ऐसे खड़े रहोगे तो अंदर भी नहीं घुस पाओगे।

और किसी तरह सर ने बैठने के लिए जुगाड़ कर ही दिया और पचास घंटे के बाद बैंगलोर पहुंच गए|

बैंगलोर प्रवास

ये समय सबसे अलग होने वाला था क्योकि मैं अलग शहर मै था कोई जान पहचान वाला नहीं था और 2 वर्ष के लिए मां से दूर आया था और IIT जिसके बारे मै मैंने सुना तक नहीं था उसके लिए पढ़ने के लिए आया हुआ था तो कुदरत कहा से कहा पहुंचा देती हैं कुछ कह नहीं सकते।

लेकिन जैसे ही नीलगिरि सदन मै गुसा तो चौंक गया , मेरे आंध्र नवोदय के भैया बैठे थे और मैं हमेशा की तरह फिर खुश , उनसे पूछा तो वो भी दक्षिणा फाउंडेशन मै थे और अभी बारहवीं मै थे।

दक्षिणा फाउंडेशन ने लगभग पैतीस हजार की पुस्तके हमको दी, TIME से शिक्षक हमको IIT के लिए कोचिंग देने आते थे और वहा का डेढ़ साल का सफर कब खत्म हुआ पता ही नहीं चला|

अनेको यादें और सीखे है बैंगलोर की जो मै कभी और साझा करूँगा।

इस डेढ़ साल में माँ से केवल बात होती थी जो हमेशा अनेक परेशानियों को झेल रही थी, मजदूरी कर रही थी, बंटाई पर खेती कर रही थी, लोगो के ताने सुन रही थी और आंसूओ के घूँट पीकर मेरी सफलता और सलामती की दुआ करके अच्छे दिन का सपना देख रही थी। बहन बड़ी हो रही थी उसकी सगाई की चिंता थी और बहन भी मां के साथ मजदूरी करके भाई के लिए मनीआर्डर से भेजें भेज रही थी ताकि भाई पढ़ सकें, छोटे भाई के पढाई के पैसो के लिए दुखी थी और घर भी रहने लायक बनाना था, दादाजी बीमार चल रहे थे और मेरा लक्ष्य था की मैं IIT मै जाऊ।

IIT के एग्जाम हो गए, AIEEE के भी हो गए और मैं डेढ़ वर्ष के पश्चात वापिस अपने गांव सरवड़ी आ गया।

अपना लक्ष्य था जल्द से जल्द नौकरी पाकर माँ को सहयोग करना इसीलिए NDA दिया था उसमे भी हो गया था , अगर IIT/AIEEE में नही हुआ तो क्या करना है वो सोच के रखा था इसीलिए JNU में एडमिशन भी ले रखा था ताकि बीएससी,एमएससी करके गणित का व्याख्याता बन सकूं जो मुश्किल होने वाला था क्योंकि वित्तीय सहायता का कोई जरिया दिख नहीं रहा था इसलिए केवल दुआ कर रहा था की NDA या IIT/AIEEE में हो जाए।

बारहवीं का परिणाम आया लेकिन वो खुशी ज्यादा दिन तक टिक नहीं सकी क्योंकि मेरा IIT मैं चयन कैमिस्ट्री की वजह से चूक गया था और उसने मुझे कुछ दिनों के लिए निराशा में डाल दिया था क्योंकि मेरे पास एक ओर साल देने का विकल्प नहीं था घर की और मां की स्थिति देखकर।मुझे सुपर 30 से भी कॉल आया लेकिन एक साल और नहीं तभी AIEEE के परिणाम ने फिर आशा के बादल बरसा दिए और मैंने NIT मै जाने का निर्णय लिया लेकिन फीस देखकर मेरी तो पांवो तले से जमीन खिचक गयी थी क्योकि एक साथ पच्चीस तीस हजार गरीब माँ के बेटे के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था और फिर मैंने सालग सर के जरिए रोटरी क्लब से बात की और उन्होंने 11 हजार का वादा किया।

फिर मुझे NIT जयपुर काउन्सलिंग के लिए जाना पड़ा और वहा जाकर मुझे पता चला की शाम 5 बजे तक पच्चीस हजार जमा करने है और मेरे हाथ पाँव फुलने लग गए , NIT मै जाने का सपना चकनाचूर होते दिखाई दे रहा था क्योकि मेरे पास तो केवल किराया था तब मेरे मित्र भूरा,पवन, मुकेश, और हरचंद ने आश्वासन दिया की चिंता ना कर सब हो जाएंगे और सब जुट गए मिशन 25 हजार में, सालग सर से बात की, उन्होंने और सब मित्रो ने मिलकर बड़ी सारे दिन की भागदौड़, अनेकों फोन करके, ATM की व्यवस्था करके 4.30 बजे तक व्यवस्था कर ही दी और भाग भाग कर लास्ट मिनट तक काउंसलिंग पूर्ण हुई|

फिर सालग सर ने समाज के महानुभावो से संपर्क किया उन्होंने अपनी इच्छानुसार सहयोग किया तो लगभग 17500 /- की राशि प्राप्त हुई और कुल 24 हजार की जमा पूंजी हुई ताकि मैं बाकी फीस भर सकू।

भीम जी काकू ने अपने से कुछ सहयोग किया और लोन का आश्वासन दिया और अपनी गारंटी पर लगभग 4 लाख का शिक्षा का ऋण प्रथम सेमेस्टर के बाद दिलवाएं।

NITK सुरतकल की ओर सफर

अब तक नवोदय एक अभिभावक की तरह हर समय साथ था लेकिन अब आगे का सफर अकेला ही तय करना था।अपने बोरिया बिस्तर बांधकर जोधपुर से रेल को पकड़ लिया और मुंबई के रास्ते चल दिए अपने गंतव्य की ओर अगले चार साल का अपना नया ठिकाना।

जब बांद्रा रेलवे स्टेशन पर उतरा तो मन मै भय कौंध रहा था और कुछ अनाप-शनाप विचार आ रहे थे क्योकि मैने मुंबई के बारे में सुना था की वहा माफिया रहते है|

नीचे उतरा तो धीमी-धीमी बारिश हो रही थी और कुर्ला जाने के लिये आगे का रास्ता तय करना था|

जब ऑटो वाले के पास गया तो दूसरा ऑटो वाला ऐसे गले काटने जैसा इशारा कर रहा था तो भय और बढ़ गया लेकिन जाना ही था क्या करे तो उसको दौसौ रुपये मै तय किया और चल दिए , उसने बोला एक और सवारी लु तो मैने तुरंत हां कहा क्योकि इसी से विश्वास रहेगा मैं सही गंतव्य तक तो पहुंच जाऊंगा और जब वहा पंहुचा तब जाकर मन को सुकून मिला|

आगे का सफर बहुत सुहावना था , समंदर के किनारे चलती रेल और ठंडी ठंडी हवा।

बारिश की वजह से रेल लेट हो गयी थी तो हमको जिस दिन रिपोर्ट करना था उसके अगले दिन पहुंचे लेकिन मेरा एडमिशन आराम से हो गया अपने ओर मित्रो के सहयोग से जो नवोदय से वहा पर पहले ही आ चुके थे|

जब मैने पहली बार कॉलेज के किनारे समुन्द्र देखा तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा , मेरे ब्रांच IT का 7 मंजिला इमारत को देखकर हॉस्टल को भी 8 मंजिला देखकर मन प्रफुलित हो रहा था , तब काउंसलिंग मै मुझे बोला की आपको दूसरी ब्रांच भी मिल जाएगी तो मैने अपने विवेक से सोचा की आगे IT का ही जमाना आएगा तो यही सही रहेगा और अपनी काबिलियत के अनुसार हिंदी का विद्यार्थी होकर भी IT ब्रांच मै रहना ही मुनासिब समझा क्योकि मैने बारहवीं तक कंप्यूटर नहीं लिया हुआ था बाकि मित्रो के हिंदी की जगह कंप्यूटर/जीव विज्ञान था और वो निर्णय मेरे लिए सही साबित हुआ|

कॉलेज के प्रथम दिन जब हम मित्रगण सीनियर हॉस्टल के पास से निकल रहे थे तो वहा सिगरेट की बदबू आ रही थी और हम रैगिंग की डर से भागकर अपने हॉस्टल आये तो मेरा एक मित्र बोला कितनी बदबू आ रही थी तो मैंने पूछा की तू कभी पियेगा तो वो बोला की मैं कैसी परिस्थिति से निकलकर आया हु , मेरे पापा नहीं हैं और माँ किसी तरह हमको पढ़ा रही लेकिन अफ़सोस वो मेरा दोस्त अब नहीं रहा क्योकि वो ड्रग्स का आदि हो चुका था और मैने सही सुना था की जब कॉलेज मै आते हैं तब पांच प्रतिशत के गलत आदते होती हैं लेकिन जब कॉलेज से निकलते हैं तब केवल पांच प्रतिशत ही बचते हैं बाकि सब नशेड़ी बन ही जाते हैं और ये मैने देखा भी अपने मित्रो मै भी, जब कॉलेज प्रेजिडेंट का चुनाव हुआ तो साठ हजार का दारू आया था|

लेकिन मैं शुक्रगुजार हु VOICE क्लब का जो इस्कोन की शिक्षाओं से युवाओं का मार्गदर्शन कर रहे हैं और बाकि मित्रो का जिनकी वजह से इन सबसे अछूता रहा और कुछ अच्छे गुण ही विकसित कर पाया और माँ के आंसू अपने जहन मै रख पाया|

जब हॉस्टल मै रहते थे तब कुछ मित्र इतनी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे की हमको लगता था की हम कहा आ गए , कुछ इतने अमीर थे की अंडर गारमेंट्स के भी तीस जोड़ी रखते थे और कुछ रोजाना पार्टिया करते थे और हमने अपनी माँ से एक रुपया भी ना लेने का प्रण कर लिया था तो मन बहुत उदास होता था की काश मेरे भी पापा होते|

कुछ मित्र जो छठी क्लास से IIT कोचिंग करते थे वो थे, कुछ मित्र बहुत बड़ी स्कूलों से थे और कुछ विदेशो से भी थे तो कुछ बड़े बड़े महानगरों से थे और उनके सामने मुझे बहुत बार हीन भावना भी आ जाती थी और लगता था मैने कहा जन्म ले लिया।

उनके बोलने का ढंग , व्यक्तित्व और रहन-सहन देखकर मुझे खुद को आत्मग्लानि होती थी और ऐसे माहौल मै खुद को उभारना बहुत मुश्किल होता था , कभी मजाक के पात्र भी बन जाते थे लेकिन अच्छी संगत , अच्छे मित्रो और बचपन का सत्संग और किताबो के ज्ञान ने उभार दिया और जीना सिख लिया|

बीच मै दादाजी का इंतकाल हो गया जो मेरी शिक्षा के लिए एक स्तंभ थे और सामाजिक व्यवस्था के तहत लाख रुपये का कर्ज ना चाहते हुए भी हो गया। अंतिम वर्ष मे बहन की शादी करनी थी तो वो भी शुभचिंतको से उधार लेकर संपन्न करवाया तो उसमे भी लाखो का कर्ज हो गया। और अब बस एक ही चिंता थी की जल्द से जल्द नौकरी लगे।

खुद का खर्चा चलाने के लिए तीसरे वर्ष से एक कोचिंग इंस्टिट्यूट मे कुछ सेवाएं भी देने लगा था।

तभी अंतिम वर्ष मै कम्पनिया आने लगी और प्लेसमेंट होने लगे लेकिन हम औसत विद्यार्थी थे तो थोड़ा इंतजार करना पड़ा|

मेरी ख़ुशी का ठिकाना तब नहीं रहा जब दो घंटे के लम्बे इंटरव्यू के बाद मेरा चयन TCS मै हो गया और उसके कुछ समय बाद AMDOCS पुणे मै हो गया और पुणे जाना मेरा सपना था तो मैं निश्चिंत होकर बैठ गया और सब जल्दी ठीक होगा इतना आत्मविश्वास आ गया|

कुछ मित्र उस वर्ष डिग्री ना ले जा पाए तो कुछ नौकरी ना ले जा सके उनके लिए दुःख हुआ लेकिन मेरा सपना एक नौकरी का था जिससे माँ को सहारा दे सकू, भाई को पढ़ा सकू, कर्जा उतार सकू और अपनी क्षमतानुसार सेवा कर सकू जो पूरा हो गया था|

मैं सिविल सर्विसेज मे जाना चाहता था और आगे भी पढाई करना चाहता था लेकिन जिम्मेदारी और परिस्थितियो ने अपना रास्ता खुद बना दिया था

मैंने कभी इंजीनियर बनने का नहीं सोचा था लेकिन परिस्थितियों ने बना दिया, बीच मे NDA लिखित मे भी हो गया था लेकिन इंजीनियरिंग जारी रखी क्योंकि ये बीच में छोड़ने का जोखिम नहीं उठा सकता था, तो अगर हम अपने आप को ढालना सीख जाये तो कैसी भी परिस्थिति हो हम निपट ही लेंगे और कुछ अच्छा ही निकलेगा जैसे मेरे साथ हुआ|

परिस्थिति से निकलने के लिए एक अच्छा चरित्र जो सत्संग और किताबो से मिलेगा, प्रेरणास्त्रोत और अच्छे मित्र चाहिए।

हमारे जीवन में हर कदम पर कुछ ना कुछ अच्छा मिलता ही हैं बस हमको उसे पहचानना हैं और उसका उपयोग करना हैं |

प्रोफेशनल जीवन

अब तक के जीवन का सुहाना सफर था पुणे रेल यात्रा क्योकि मैं नौकरी करने जा रहा था और सिर पर लाखों (बहन की शादी, दादाजी के देहांत का, शिक्षा ऋण) रूपयों का कर्ज था जो अब उतर जाएगा ये उमंग थी|

मैं इतने बड़े ऑफिस को देखकर अचंभित था , इतनी साफ सफाई , बोलने का ढंग , कपड़ो का ढंग और सब कुछ पहली बार अंग्रेजी में ही हो रहा था, पुरे दिन कंपनी के बारे मे बताया फिर अगले कुछ दिन ट्रेनिंग थी और फिर हमको अपने प्रोजेक्ट मिले हम अपने मैनेजर से मिले और सबसे हमारी जान पहचान हुई|

मैनेजर ने हमको काम दिया की शुक्रवार तक मतलब दो दिनों मे सब टीम वालो के नाम याद करने है और मैंने अपना पहला काम शिदत के साथ पूरा किया फिर रस्म के अनुसार मैने मारवाड़ी गाना सुनाया सबको। जो कॉलेज मे सीखा था वो बहुत कम ही काम आता हैं तो कंपनी के हिसाब से सीखने का काम शुरू हो गया और उसी समय मेरा एक सीनियर छोड़ के चला गया तो वो काम मुझे संभालना तो मेरे लिए वो नाकों चने चबाने जैसा हो रहा था और ये कश्मकश कुछ महीने रही और फिर धीरे धीरे सब सामान्य होने लग गया|

लंदन की आबोहवा

लगभग डेढ़ वर्ष बीत चुका था और एक प्रोजेक्ट के लिए उस बच्चे को लंदन जाना था जिसको अंग्रेजी में कभी पच्चीस में से 1 नंबर भी आया था और माँ तो हमेशा की तरह मना ही कर रही थी की क्यों इतना दूर जा रहा हैं लेकिन मुझे तो आपको पता ही हैं जाना ही था। और वो दिन भी आ गया जब मैं पहली बार हवाई जहाज मै बैठने वाला था और वो भी विदेश के लिए और ये ख़ुशी मैं शब्दों मे बयान नहीं कर सकता|

यहाँ से दुबई और फिर वहा से आठ घंटे की दुरी तय करके लंदन पंहुचा तो ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा और मैं चौंक गया की इतना साफ सुथरा शहर कैसे हो सकता हैं , सब लोग हर नियम का पालन कर रहे हैं , सड़के एकदम बढ़िया हैं , सब व्यवहार में बहुत अच्छे हैं कुछ पुछने पर इतनी शिद्दत से बता रहे हैं , हर उत्पाद की गुणवत्ता बहुत अच्छी हैं , हर वस्तु पर जो लिखा है वो ही अन्दर हैं , कोई धोखाधड़ी नहीं, कोई कचरा बाहर नहीं फेंकता, पुलिस अपना काम बिना रिश्वत के अपना काम करती, सफाई कर्मी भी अपना काम शिद्दत से करता, विद्यार्थी भी अपना खर्चा चलाने के लिए कोई भी काम कर रहे जैसे होटल मे या गेराज में कोई हीन भावना नहीं ऐसे ही अनेको गुण जिसकी वजह से मैं प्रभावित हुआ।

इस्कोन मंदिरों की वजह से मुझे कभी भी अपने वतन से अलगाव महसूस हुआ ही नहीं चाहें किसी देश में जाऊ अपने परिवार जैसा ही लगा।

इन सबके होने के बाद भी लोग मानसिक रूप से अस्वस्थ थे और मनोचिकित्सको की तादाद बढ़ रही है क्योकि वहा जो मन को उत्साह से भर दे ऐसे कार्य कम ही होते हैं जैसे संयुक्त परिवार, त्यौहार और मेल मिलाप क्योकि एकाकी जीवन हैं और आजकल वहां भक्ति और योगा सेंटर गली गली में बन रहे थे ताकी मानसिक रूप से शांति मिल सकें।

वही पर मुझे मैनेजर का कॉल आया और बोला गया की आपका प्रमोशन हुआ हैं और सैलरी बहुत अच्छे प्रतिशत के साथ बढ़ाई गयी हैं और आपका गत साल का काम बहुत शानदार रहा।

एक संघर्षशील कर्मचारी के लिए इससे ख़ुशी से बढ़कर और क्या हो सकता हैं और इसी तरह वो पेंतालिस दिन,ऑफिस के काम के साथ साथ, नए मित्रो को बनाना और अनेक जगहों पर भ्रमण करने मे कब ख़त्म हो गए पता ही नहीं चला।

टोरंटो का अनुभव

इसी तरह अपना प्रोफेशनल जीवन अच्छा चल रहा था, ऋण भी उतर रहा था और तीन वर्ष पश्चात जब प्रोजेक्ट बदला तो दो बार टोरंटो जाने का भी एक एक महीने के लिए अवसर मिला और उसी सफर में जापान और जर्मनी के भी दर्शन हो गए।

टोरंटो का जीवन भी शानदार हैं वहा पर तीसरी भाषा पंजाबी हैं तो वहा घर जैसा महसूस होता हैं और वहा ज्यादा अपनापन झलकता हैं, वहा पर 1 सेकंड के लिए भी चालान कट जाता हैं जब STOP सिगनल पर तीन सेकंड नहीं रुकते हैं तो चालान घर पर आ जाता हैं, वही पर बहुत सारी जगहों पर घूमने का मौका मिला, US और कनाडा के बॉर्डर पर नाइग्रा फाल्स पर जाने का भी अवसर मिला।

5.5 वर्ष के पश्चात एक बार फिर मेरा प्रमोशन हो गया और टीम लीड बन गया, सब मुझे सरकारी नौकरी का बोलते हैं तो मैं यही कहता हूँ की अगर काबिलियत हैं तो कही भी सफल बन जाएंगे इसीलिए जहा मौका मिल रहा हैं वही उसका सदुपयोग करो, केवल सरकारी नौकरी के भरोसे मत रहो बल्कि अपनी काबिलियत बनाओ ताकि कही भी झंडे गाड़ सको।

आज जब कठिनाई मे भी होता हु तो हर जगह से मित्रो के कॉल आ ही जाते हैं इसीलिए बहुत जरुरी हैं की हर जगह मित्र बनाओ और आप सेवा करेंगे तो वो घनिष्ठता मे बदल ही जाएगी|

कोई भी स्थान हो कभी भी नाक भौंहे नहीं सिकोड़नी हैं बल्कि अवसर देखना हैं की कैसे हम इसको अपने आशीर्वाद मे बदले और कुछ नया सीख कर निकले।

कोरोना काल से पहले लगातार चार बार हमारी टीम क़्वार्टर की बेस्ट टीम रही थी जो बहुत मुश्किल हैं और आज नौकरीके छह वर्ष के पश्चात इस कोरोना की वजह से दो साल से घर से काम करते हुए टीम लीडर की भूमिका निभा रहा हूँ। यथासंभव जरुरतमंदो का सहयोग करने की कोशिश कर रहा हूँ। कुछ दिन पहले मेरी डेढ़ महीने की बिटिया भी नहीं रही, माँ की कठोर तपस्या और मेहनत की वजह से आज पेंतालिस वर्ष की उम्र मे ही सर्वाइकल जैसी बीमारी के साथ और बीमारियों से भी पीड़ित हैं  लेकिन फिर भी जीवन नहीं रुकना चाहिए, हार नहीं माननी चाहिए और टूटना भी नहीं चाहिए इसी सिद्धांत के साथ जीवन को आगे बढ़ा रहा हूँ। बचपन मे पिता का खोना और जवानी मे बिटिया का, ये दर्द शब्दों मे बयां नहीं हो सकता और नहीं महसूस करवाया जा सकता इसीलिए जब तक जीवन हैं तब तक सेवा मे लगा रहेगा तो सब दुःख अपने आप मिट जाएगा।

My Motto is “ASPIRE TO INSPIRE BEFORE YOU EXPIRE”

मैं सभी का बहुत शुक्रगुजार और कृतज्ञ हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी ना किसी रूप मे सहयोग किया की एक ढाणी का, विधवा माँ का बेटा किसी ना किसी रूप मे सेवा दे पा रहा हैं।

इंजी. कमलेश देवपाल
सोफ्टवेयर डेवलपमेंट टीम लीड
AMDOCS, Pune

 

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