पाटलीपुत्र नगर में चार ब्राह्मण रहते थे. वह चारों आपस में परममित्र थे. लेकिन उन चारों का दुर्भाग्य यह था कि वे निर्धन थे. यही कारण था समाज में उनका मान-सम्मान नहीं होता था.
एक दिन उन चारों ने आपस में मन्त्रणा करते हुए कहा-‘ यहां रहकर तो हमारे लिए कुछ भी करना सम्भव नहीं, इसलिए अब हमें कहीं और चलना चाहिए. परीश्रम में बहुत बल होता है. यदि हम चारों मिल कर परिश्रम करेंगे तो काफी धन प्राप्त कर लेंगे.’
चारों ब्राह्मण मित्र घर से निकल पड़े और घूमते-फिरते उज्जयिनी नगर में आ पहुंचे. वहां कालभैरव के मंदिर में उनकी मुलाकात पीठासन महात्मा भैरवानन्द से हुई. चारों ब्राह्मणों ने महात्मा को अपनी निर्धनता और दिन-हीन हालत से अवगत कराया. उन्होंने महत्मा से कहा-‘ महात्मन! हम अपनी निर्धनता के कारण अपने बंधु-बान्धवों के समक्ष उपहास का विषय बन गए थे. इसलिए अपना नगर छोड़कर धन प्राप्ति के लिए नगर-नगर भटक रहे हैं.
‘ ब्राह्मणों! ऐसा प्रतीत होता है जैसे आपके भाग्य में धन का योग ही नहीं है.’ महात्मा ने कहा.
‘ महात्मन! हो सकता है आपके वचन सत्य हों. हम इस बात को भी मानते हैं कि भाग्य प्रबल होता है लेकिन कभी-कभी परिश्रम के द्वारा धन की प्राप्ति सम्भव हो जाती है. अधिकतर लोग वर्षा के जल से भरे जलाशय से ही जल ग्रहण करते हैं, परन्तु इसके विपरीत कुछ ऐसे साहसी भी होते हैं जो स्वयं कुआं खोदकर उससे जल प्राप्त करते हैं. यदि आप हमारी सहायता करें तो हम आपके आभारी रहेंगे.’ ब्राह्मणों ने कहा.
‘ मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूं?’ महात्मा ने आश्चर्य से उनकी और देखते हुए कहा.
‘ हमने सुन रखा है कि आप सिद्ध महात्मा हैं. बड़े ही सौभाग्य से हमें आपके दर्शन हुए हैं. हम जैसे अभागों का भाग्य आप जैसे सिद्ध पुरुष ही बदल सकते हैं.’ ब्राह्मणों ने ही दिनभाव से कहा.
महात्मा भैरवानन्द ने उन चारों ब्राह्मण मित्रों पर तरस खाकर उन्हें चार बत्तियां देते हुए कहा-‘ तुम चारों एक-एक बत्ती आपस में बांट लो और हिमालय की और उतर दिशा में बढ़ते चले जाओ. जिसके हाथ से बत्ती जहां गिरेगी, वहां खुदाई करने पर उसे उसके भाग्य का धन अवश्य प्राप्त होगा.’
ब्राह्मणों ने महात्मा भैरवानन्द के प्रति आभार प्रकट करते हुए उन्हें प्रणाम किया और चारों हिमालय पर्वत की ओर चल दिए. हिमालय पर पहुंचते के बाद वह उतर दिशा की और बढ़ने लगे. थोड़ी दूर चलने के बाद एक ब्राह्मण के हाथ से बत्ती गिर पड़ी. वहां खुदाई करने पर तांबे की खान मिली. तांबे की खान प्राप्त करनेवाले ब्राह्मण ने अपने बाकी साथियों से कहा-‘ आओं! अब यहां से चलें. शायद, हमारे भाग्य में जो था, हमने प् लिया है.’
‘ तुम कितना भी तांबा उठाकर क्यों न ले जाओ, इससे तुम्हारी दरिद्रता दूर होने से रही.’ बाकी तीनों ने कहा.
‘ ठीक है! मैं तो इस तांबे को अपना भाग्य समझकर लौट रहा हूं. तुम आगे जा सकते हो.’ पहले ब्राह्मण ने और जितना तांबा ले जा सकता था, ले गया.
तीनों अभी कुछ ही आगे बढ़े थे कि एक और ब्राह्मण के हाथ से बत्ती छुटकर नीचे गिर गई. वहां खुदाई करने पर उन्हें चांदी की खान मिली. इस पर उस ब्राहमण ने अपने दोनों साथियों से कहा-‘ अब हम तीनों को अपनी इच्छानुसार चांदी लेकर वापस लौट चलना चाहिए.’
इस पर बाकी दोनों ब्राह्मणों ने कहा-‘ पीछे तांबे की खान मिली थी और अब चंडी की खान मिली है, आगे हमें जरुर सोने की खान मिलेगी. हम तो आगे बढ़ेगे. तुम्जाना चाहो तो वापस जा सकते हो.’
उनके यह वचन सुनकर दूसरा ब्राह्मण अपनी इच्छानुसार चांदी लेकर वापस लौट गया और वह दोनों ब्राह्मण आगे बढ़ गए. वे कुछ आगे बढ़े थे की एक ब्राह्मण के हाथ फिर से बत्ती गिर गई. उस जगह की खुदाई करने पर सोने की खान मिली. उसने अपने साथी से कहा-‘ मित्र! अब हम दोनों को अपनी इच्छानुसार सोना लेकर वापस चल देना चाहिए. इसे पाकर हमारी निर्धनता दूर हो जाएगी. इससे अधिक मूल्यवान वस्तु हमारे भाग्य में नहीं हो सकती.’
‘ नहीं! पहले तांबे की खान मिली थी, फिर चांदी की अब सोने की खान मिली है. अब आगे रत्नों को खान मिलेगी. तुम्हारे सोने के इस भारी वजन से तो एक ही रतन अधिक मूल्यवान होगा. अगर तुम भी जाना चाहते हो तो अपनी इच्छानुसार सोना लेकर चले जाओ.’ अन्तिम ब्राह्मण ने कहा.
उसका साथी भी इच्छानुसार सोना लेकर चला गया. चलते वक्त ब्राह्मण ने अपने साथी को अधिक लालच न करने और इस स्वर्ण भण्डार से ही अपनी निर्धनता को दूर करने के लिए बहुत समझाया,परन्तु उसने अपने मित्र की एक न सुनी.
अपने साथी के चले जाने के बाद अकेला बचा ब्राह्मण रास्ता भटक गया. ठोढ़ी ही दूर चलने के बाद उसे थकावट और प्यास ने आ घेरा. वह जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता थकान उस पर हावी होती जाती. इधर-उधर घुमती हुए उस भटकते और भ्रमित ब्राह्मण ने खून से लथपथ और सिर पर घुमती चक्र को धारण किए एक व्यक्ति को देखा. वह उसके पास जाकर जल की याचना करने लगा. ब्राह्मण ने अभी कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि सामने खड़े व्यक्ति के सिर पर घूमता चक्र उससे अलग होकर ब्राह्मण के सिर पर आकर घुमने लगा. यह देखकर आश्चर्यचकित ब्राह्मण ने उस व्यक्ति से पूछा-‘ यह सब क्या है? तुम्हारे सिर से हटकर यह चक्र मेरे सिर पर कैसे आ गया.
‘ यह अत्यधिक लालच का फल है. मैं लोभ के कारण ही इस स्थिति में पहुंचा था और तुम्हारे आने से मुझे इससे मुक्ति प्राप्त हुई है.’
‘ अब मेरा उद्धार कब होगा?’ ब्राह्मण ने दुखी स्वर से पूछा.
‘ जब कोई दूसरा व्यक्ति तुमसे भी अधिक लोभ करेगा, तभी तुम्हें इससे मुक्ति मिलेगी.’ उस व्यक्ति ने कहा और वहां से चला गया.
कथा-सार
‘संतोषं परमं धनं’ अर्थात जो मिले उससे ही संतोष करना सबसे बड़ा धन है, अधिक प्राप्ति के लोभ में हाथ में आई वस्तु या धन भी जाता रहता है, जैसा चौथे ब्राह्मण के साथ हुआ. इसीलिए कह भी गया है कि ‘समय से पहले और भाग्य से अधिक’ किसी को कुछ नहीं मिलता.