एक कुएं में गंगादत्त नामक मेंढकों का राजा रहता था। एक दिन वह अपने परिवार के लोगों से लड़-झगड़कर कुएं से बाहर निकल आया और अपने ही बच्चों द्वारा किए गए अपने अपमान का बदला लेने की सोचने लगा। गंगादत्त ने संयोगवश प्रियदर्शन नामक काले सांप को बिल में घुसते हुए देखा तो सोचने लगा कि कांटे से कांटे को निकालने में ही बुद्धिमता है। सांप हमारा जन्मजात और बलवान शत्रु है। क्यों न इस शत्रु को कुएं में रहनेवाले शत्रुओं से भिड़ा दिया जाए?
काफी सोच-विचार करने के उपरांत गंगादत्त ने प्रियदर्शन के निवास के पास जाकर उसे आवाज दी तो प्रियदर्शन ने बिल में से ही पूछा-‘कोन हैं आप और मुझे क्यों बुला रहे हैं?’
‘ मैं मेंढको का राजा गंगादत्त हूं और आपसे मित्रता करने आया हूं।’ गंगादत्त ने अपना परिचय बाहर खड़े-खड़े ही दिया।
‘ क्या घास-फूस की अग्नि से मितार्ता हो सकती है? क्या कोई जीव कभी स्वप्न में भी अपने भक्षक के पास जाने की सोच सकता है? इसलिए राजन! तुम्हारा कथन भी अविश्वसनीय है।’ प्रियदर्शन ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा।
‘ आपका कथन सत्य है। आपका और हमारा वैर है, परन्तु अब मैं एक अन्य शत्रु द्वारा किए गय अपने तिरस्कार का बदला लेने के लिए आपके पास आया हूं। आप मुझ पर विश्वास कीजिए।’ गंगादत्त ने अपने आने का कारण बताते हुए कहा।
प्रियदर्शन ने गंगादत्त से विस्तार से सबकुछ बताने का अनुरोध किया तो गंगादत्त ने कहा-‘ मेरे अपने परिजनों ने मेरा अपमान किया है। कल के यह छोकरे अपने को बहुत बुद्धिमान समझते हैं। लेकिन उन्हे यह नहीं पता कि हम बुजुर्गो ने धूप में बाल सफेद नहीं किए हैं। अपने अपमान का बदला लिए बिना मेरे मन को शांति नहीं मिल सकती।’
‘ तुम्हारा निवास स्थान कहां है?’ प्रियदर्शन ने गंगादत्त के निवास का पता पूछा।
‘ मैं तुम्हारे निवास से कुछ ही दुरी पर एक कुएं में रहता हूं। मैं स्वयं आपको अपने निवास पर ले चलूंगा।’ गंगादत्त ने खुशी-खुशी कहा।
प्रियदर्शन ने सोचा, अब में बूढ़ा हो गया हूं। और ठीक प्रकार से भोजन भी नहीं खोज सकता। इसलिए इस प्रस्ताव को ठुकराना मूर्खता होगी। यह सोचकर प्रियदर्शन सर्प ने अपनी सहमति दे दी और गंगादत्त से मार्गदर्शन का अनुरोध किया।
गंगादत्त बढ़े ही आसन और छोटे मार्ग से प्रियदर्शन को अपने निवास स्थान पर ले गया। गंगादत्त द्वारा बताए उसके शत्रुओं को एक-एक करके प्रियदर्शन खाने लगा। गंगादत्त के शत्रुओं के समाप्त हो जाने पर प्रियदर्शन उससे कहा-‘ आप मुझे यहां बुलाकर लाए हैं, इसलिए मेरे भिजन की व्यवस्था करना आपका कर्तव्य है।’
‘ जिस कार्य हेतु मैं आपको बुलाकर लाया था, अब वह पूरा हो चुका अतः अब आप अपने घर लौट जाइय
‘ यह कैसे सम्भव है? मेरे घर पर तो किसी अन्य जीव ने अधिकार जमा लिया होगा। अब तो यह कुआं ही मेरा स्थायी निवास है।’
प्रियदर्शन के कथन को सुनकर गंगादत्त चिन्तित हो उठा और अपने किए पर पश्चाताप करने लगा। प्रियदर्शन से अपना बचाव असम्भव जानकर गंगादत्त को हर रोज अपने परिवार का एक प्रिय सदस्य उसके भोजन के लिए देना पड़ा।
धीरे-धीरे गंगादत्त के अपने परिवार के सदस्य घटते चले गय। एक दिन जब गंगादत्त के पुत्र की बारी आई तो गंगादत्त बुरी तरह चीखने-चिल्लाने लगा। उसे रोता-बिलखता देखकर गंगादत्त की पत्नी ने उससे कहा-‘ स्वामी यह तो एक दिन होना ही था। जब आप स्वयं शत्रु को निमंत्रित करके लाए हो तो अब पुत्र मोह से रोना-बिलखना और पश्चाताप करना बेकार है।’
इस तरह एक-एक करके उस कुएं के सारे मेंढक प्रियदर्शन सर्प के पेट में समा गए। सारे मेंढक समाप्त हो जाने के बाद प्रियदर्शन ने गंगादत्त से कहा-‘ मेरे भोजन की व्यवस्था करो अन्यथा मैं तुम्हें ही खा जाऊंगा।’
‘ अगर तुम मुझे आज अपना भोजन बना लोगे तो कल किसे अपना भोजन बनाओगे। अतः मैं कुएं से बाहर जाकर पास के दुसरे कुएं से कुछ मेंढकों को फुसलाकर ले आता हूं।’ गंगादत्त ने प्रियदर्शन से बाहर जाने की अनुमति मांगी। सर्प ने अपने स्वार्थवश गंगादत्त को बाहर जाने की अनुमति दे दी और स्वयं उसके लौटेने की प्रतीक्षा करने लगा।
जब बहुत दिनों तक भी गंगादत्त नहीं लौटा तो प्रियदर्शन ने समीप रहनेवाली गोधा के पास जाकर गंगादत्त को बुला लाने के लिए कहा। गोधा ने गंगादत्त के पास जाकर उसे प्रियदर्शन का सन्देश सुनाया तो गंगादत्त ने कहा-‘ एक बार जो मुर्खता हो गई, सो हो गई, बड़ी कठिनाई से मैं अपने प्राण बचाने में सफल हो सका हूं। अब मैं उस मूर्खता को फिर कभी नहीं दोहराऊंगा। अतः प्रियदर्शन से जाकर कह दो कि गंगादत्त अब उस कुएं में कभी आनेवाला नहीं है।’
गोधा ने जब गंगादत्त के यह वचन प्रियदर्शन को सुनाए तो वह हाथ मलता रह गया।
कथा-सार
शत्रु को अपना मित्र बनाना तो मानो अपने हाथों से विष पीना है। शत्रु को अपना मित्र समझनेवाला प्राणी सबसे बड़ा मुर्ख होता है। कुछ ऐसी ही मूर्खता गंगादत्त नामक मेंढक ने की थी, पर जब अपने ही प्राणों पर बन आई तो उसे आभास हुआ कि वह गलती पर था। अंत में उसने चतुराई से काम लेते हुए अपनी प्राणरक्षा की।