panchtantra ki kahaniya

किसी वन में वज्रद्रंष्ट्र नामक एक शेर रहता था. चतुरक और क्रव्यमुख नामक सियार और भेड़िया उसके बड़े ही आज्ञाकारी सेवक थे. एक दिन शेर ने अपने काफिले से बिछुड़ी अलग-थलग पड़ी तथा प्रसव वेदना से कराहती हुई ऊंटनी को देखकर अपने स्वभाव उसका पेट फाड़ डाला. शेर ने ऊंटनी का मांस खा तो लिया और उसे परम तृप्ति का अनुभव भी हुआ, परन्तु ऊंटनी के पेट से निकले बच्चे को देखकर उसका दिल भर आया. शेर के मन में उस ऊंटनी के बच्चे के प्रति कुछ इस प्रकार स्नेह उत्पन्न हुआ कि वह उसे सुरक्षित घर ले आया. सिंह ने ऊंटनी के बच्चे को अभयदान देकर उसे वन में निशिचंततापुर्वक घुमने-फिरने और मनचाहा भोजन करने की अनुमति दे दी. शेर ने उस बालक का नाम शंकुकर्ण पूर्ण निशिचतता के साथ शेर और उसके सेवकों के साथ घुमने-फिरने लगा. धीरे-धीरे समय बीतता चला और गुजरते वक्त के साथ-साथ शंकुकर्ण जवान हो गया.

संयोगवश एक दिन वज्रद्रंष्ट्र का एक हाथी से सामना हो गया. हाथी नानी अपने दांतों के प्रहार से उसे इस प्रकार घायल कर दिया कि वह उठने-बैठने-यहां तक कि चलने-फिरने में भी असमर्थ हो गया. ऐसे में एक दिन सिंह ने अपने सेवकों से कहा, ‘साथियों! किसी ऐसे पशु को खोजकर लाओ, जिसका शिकार मैं इस असहाय अवस्था में भी कर सकूं.

अपने स्वामी के आदेश को शिरोधार्य करके दोनों सेवक वन के एक कोने से दूसरे कोने तक भटकने रहे, परंतु उन्हें ऐसा कोई प्राणी नहीं मिला, जिसका सिंह बैठे-बैठे ही शिकार कर सके. निराश सेवकों ने लौटकर अपनी असफलता से अपने स्वामी शेर को अवगत कराया.

दुसरे दिन चतुरक ने अपने साथी क्रव्यमुख से कहा, ‘इस प्रकार भूखे रहकर तो एक दिन हम सब मर जायंगे. मेरे दिमाग में एक योजना है, अगर सिंह उसे कार्यरूप देने को तैयार हो जाए.’

‘कैसे योजना?’ क्रव्यमुख ने पूछा.

‘यदि शंकुकर्ण का वध कर दिया जाए तो कुछ दिनिओं के भोजन की व्यवस्था हो सकती है.’ चतुरक ने अपनी योजना बनाते हुए कहा.

‘तुम ठीक कहते हो चतुरक, इसके सिवा हमारे पास और कोई चारा भी तो नहीं है.

‘तब तक शायद हमारा स्वामी स्वस्थ होकर शिकार करने की स्थति में आ जायगा.’ चतुरक ने अपने साथी की योजना का समर्थन करते हुए कहा.

‘लेकिन….’ क्रव्यमुख के चेहरे पर अचानक गंभीरता छा गई.

‘लेकिन क्या मित्र?’

‘आपका सुझाव तो उतम है और स्तिथि को देखकर ही हमारे अनुकूल भी है, मगर हमारे स्वामी का शंकुकर्ण के प्रति इतना अधिक स्नेह है की वह उसके वध के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं होगा.’ क्रव्यमुख ने निराश स्वर में कहा.

‘इस बात को तो मैं भी अच्छी प्रकार समझता हूं,लेकिन भुख व्यक्ति को सबकुछ करने को विवश कर देती है. किसी को भी अपने प्राणों से अधिक प्रिय और कुछ नहीं होता.’

इस प्रकार सोच-विचार करने के बाद दोनों शेर के पास जाकर बोले, ‘राजन! यदि अपने प्रान्नो से मोह है तो शंकुकर्ण के वध का प्रस्ताव स्वीकार का लीजिए, अन्यथा भूख की व्याकुलता के कारण आप को हम यमलोक की ओर प्रस्थान कर जायंगे.’

‘यदि शंकुकर्ण स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करता है तो मैं उसके वध के प्रस्ताव पर विचार कर सकता हूं. अगर वह आत्मसमर्पण नहीं करता है तो चाहे मैं तड़प-तड़पकर मर जाऊं, पर उसका वध नहीं करूंगा.’ सिंह ने बेहद धीमे स्वर में कहा.

सिंह की अनुमति प्राप्त कर लेने के बाद दोनों धूर्त शंकुकर्ण के पास चिंतित मुद्रा में आए और उससे कहने लगे, ‘मित्र! हमारा स्वामी भोजन न मिलने के कारण इतना असमर्थ हो गया है कि वह उठ भी नहीं सकता. उसके घाव भी नहीं भर पा रहे हैं. मैं स्वामी के हित के लिए ही तुमसे कुछ कह रहा हूं, तुम इसे अन्यथा मत लेना.’

‘बंधुवर! स्वामी के लिए मैं कुछ भी करने के लिए तैयार हूं. शायद मैं स्वामी के किसी काम आकर पुण्य का भागी बन सकूं.’ शंकुकर्ण ने सहज भाव से कहा.

‘इस समय स्वामी पर भारी विपति आई हुई है, उनके प्राणों पर संकट आ पड़ा है. तुम अपने शरीर को समर्पित करके स्वामी की प्राण-रक्षा के पुण्य भागी बन सकते हो.’

‘मैं हर प्रकार से तैयार हूं.’ शंकुकर्ण ने अपनी स्वीकृति दी.

उसकी स्वीकृति पाते ही वह दोनों धूर्त शंकुकर्ण को शेर के पास ले गए. सिंह के पास पहुंचकर शंकुकर्ण ने निवेदन किया, ‘स्वामी! मैं अपने धर्म का पालन करने के लिए अपना शरीर सहर्ष आपको समर्पित करता हूं. यह जीवन आप ही का तो दिया हुआ है. अब आप मेरे इस नश्वर शरीर से अपने और अपने सेवकों के प्राणों की रक्षा करें.’’

सिंह की स्वीकृति मिलते ही दोनों ने उस ऊंट को फाड़ डाला. शंकुकर्ण के वध के बाद सिंह ने चतुरक से कहा, ‘मैं नदी में स्नान करके आता हूं तब तुम इस मांस की सावधानी से देखभाल करना.’

सिंह के जाते ही चतुरक सोचनें लगा कि कोई ऐसी युक्ति निकाली जाए, जिससे सारे मांस पर मेरा हीं अधिकार हो जाए. कुछ देर सोचने के बाद अपने साथी क्रव्यमुख को बुलाकर कहा, ‘मित्र! आप बहुत ही ज्यादा भूक से पीड़ित नगर आते हो. इसलिए जब तक सिंह नहीं लौटता, तब तक इस बढ़िया मांस को खाने का आनंद प्राप्त कर लो. स्वामी के आने पर मैं उससे निबट लूंगा.

क्रव्यमुख भूख से व्याकुल तो था ही, अतः उसने जैसे ही खाने के लिए मुंह खोला, चतुरक नौ उसे स्वामी के आने की सूचना दी और भागकर कहीं छिप जाने के लिए कहा. क्रव्यमुख भयभीत होकर भाग गया और पास ही झाड़ियों में जा छिपा.

सिंह ने वहां आते ही मांस देखा और घायल होने के बावजूद तेज स्वर में दहाड़ते हुए कहा, ‘मित्र! मैंने पहले ही तुम से कहा था कि स्वामी स्नान करने गए हैं, उनके खाने को जूठा मत करो. लेकिन तुम अपनी भूख पर संयम नहीं रख सके. अब इसका परिणाम भुगतो.’

चतुरक के वचन सुनकर क्रव्यमुख अपने प्राण संकट में देखकर वहां से भाग खड़ा हुआ.

सिंह जैसे ही भोजन करने बैठा कि तभी उसने एक भारी घंटे की आवाज सुनी. कुछ ही दुरी पर ऊंटों का एक काफिला गुजर रहा था और आगेवाले ऊंट के गले में घंटा लटक रहा था ताकि उसके चलने से होनेवाली आवाज को सुनकर दूसरे ऊंट सही दशा में चल सकें. सिंह ने चतुरक से तुरंत उस घंटे की आवाज के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए कहा. चतुरक थोड़ी दूर जाकर लौट आया और सिंह से बोला,’महाराज! यहां से तत्काल भाग जाएं. आप पर भारी संकट आनेवाला है. जल्दी कीजिए, समय बहुत काम है.’

‘स्पष्ट रूप से बताओ, आनेवाला वह संकट कौन-सा है?’ सिंह ने भयभीत होकर कहा,

‘राजन! आपने असमय ऊंट का वध किया है. इसकी शिकायत ऊंटों ने यमराज से की है, वह आप पर क्रुद्ध हो गए हैं. वे ऊंटों के सामने ही आपको दंध देने के लिए, ऊंटों के विशाल झुंड के साथ इधर ही आ रहे हैं. उन्होंने एक ऊंट के गले में घंटा बांध रखा है, ताकि सभी यह जान लें कि धर्मराज किसी को भी किसी के प्रति अन्याय की अनुमति नहीं देते.’

चतुरक की बात को सुनते ही सिंह वहां से भाग गया और उसके बाद चतुरक कई दिनों तक उस मांस का आनंद लेता रहा.

कथा-सार

धूर्त व्यक्ति अपनी कूटनीतिक चालों से दूसरों को हानि पहुंचाकर भी स्वयं सामने नहीं आता. सियार और भेड़िए ने चतुराई दिखाकर सिंह द्वारा पाले गय ऊंट को उसी के हाथों मरवा डाला. जब शिकार को खाने की बारी आई तो चतुर सियार ने भेड़िए तथा सिंह, दोनों को वहां से भागने पर विवश कर दिया. इसी प्रकार चतुर व्यक्ति दूसरों को हानि पहुंचाकर अपनी कार्यसिद्धि कर लेता है और पता भी नहीं चलने देता कि यह सब किसने किया है.

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