panchtantra ki kahaniya

किसी नगर में एक सुशिक्षित ब्राहमण कुसंस्कारों के कारण चोरी करने लगा था. एक बार उस नगर में व्यापार करने के लिए चार सेठ आए. चोर ब्राह्मण ने अपने शास्त्रज्ञान के प्रभाव से उन सेठों का विश्वास प्राप्त कर लिया और उनके पास रहने लगा.

सेठों ने अपने व्यापार से कमाए धन से मूल्यवान हीरे खरीद और उन्हें अपनी जंघा में बनाए छेद में छिपाकर चल दिए. ब्राह्मण भी उनके धन को ऐठने की एच्छा से उपयुक्त अवसर की तलाश में उन सेठों का साथ चल दिया.

चारों सेठ और ब्राहमण चलते-चलते पल्लीपुर नामक एक आदिवासी बस्ती में से गुजरे तो वहां पेड़ों कौवे जोर-जोर से चिल्लाने लगे, ‘आदिवासियों आओ, जल्दी आओ. सवा लाख गठरी में बांधे सेठ चले आ रहे हैं.’

कौवों के चिल्लाने की तेज आवाजें सुनकर आदिवासी दोड़ते हुए अपने कबीलों से बाहर निकल आए और तुरंत ही उन पांचों राहगीरों को चारों तरफ से घेर लिया. लाठियों दिखाकर उन्हें तलाशी देने का आदेश दिया.

‘हमारे पास कोई धन है, हमें जाने दो.’ पांचों ने एक ही स्वर में कहा.

‘ऐसा तो संभव ही नहीं हि तुम्हारे पास धन न हो. हमारे कौवों का कथन कभी मिथ्या हो ही नहीं सकता.’ आदिवासियों ने उन पांचों से कहा.

आदिवासियों ने पांचों की अच्छी तरह तलाशी ली लेकिन उनके पास कुछ भी नहीं मिला.

‘यह नहीं हो सकता, हमारे कौवे कभी झूठ नहीं बोलते. तुम्हारे पास धन जरुर है. उसे चुपचाप हमारे हवाले कर दो वरना हम तुम्हे मारकर, तुम्हारे जिस्म को चिर-फाड़कर धन को तलाश लेंगे.’ आदिवासियों ने चेतावनी दी.

‘हम शपथ खाते हैं, हमारे पास धन नहीं है.’ ब्राह्मण ने उन चारों सेठोँ की तरफ से उनका पक्ष लिया.

‘तुम झूट बोल रहे हो तथा मौत के भय से भयभीत हो रहे हो. अगर जीवित रहना चाहते हो तो धन हमारे हवाले कर दो.’ आदिवासियों का मुखिया क्रोधित स्वर में दहाड़ा. आदिवासियों के वचन सुनकर, चोर ब्राहमण ने सोचा कि यदि इन लोगों ने सचमुच इन सेठों को मार डाला तो इनके धन पर आदिवासियों का अधिकार हो जायगा. मुझे तो कुछ भी नहीं मिलेगा. इसलिए एन चारों को धनरहित प्रमाणित करने के लिए मैं अपने प्राणों को ही क्यों न समर्पित कर दूं. मेरे पास तो किसी प्रकार का धन है ही नहीं. मेरे शरीर को चाहे जितना चीरें-फाड़े, इन्हे कुछ भी प्राप्त नहीं होगा. जब इन्हें मेरे शरीर में से धन नहीं मिलेगा तो यह आदिवासियों इन चारों शेठों को छोड़ देंगे. मृत्यु का क्या है, एक-न-एक दिन तो आनी ही है. फिर क्यों न परमार्थ के किए प्राण त्यागकर पुण्य का भागी बनूं. यह सोचकर ब्राह्मण ने उन आदिवासियों के पास आकर कहा, ‘ यदि तुम्हे अपने कौवों के कथन पर इतना सशक्त विश्वास है कि हमारे पास धन अवश्य है तो पहले मुझे मारकर मेरे अंग-प्रत्यंग को चिर-फाड़कर उसका भली-भांति निरिक्षण कर लो. तुम लोंगों को अगर मेरे शरीर में से कुछ भी धन प्राप्त हो तो मेरे एन चारों साथियों का भी वध कर देना. यदि कुछ न मिले तो इन्हें सकुशल जाने देना.

‘ यह हमारा वचन है कि अगर तुम्हारे शरीर माय्न्सय कुछ नहीं मिला तो हम इन चारों को जान नहीं लेंगें.’ आदिवासियों के मुखिया ने ब्राह्मण को वचन दिया और ब्राह्मण का तत्काल वध कर डाला. उसके अंग-प्रत्यंग का खूब अच्छी तरह चिर-फाड़कर देखा लेकिन उन्हें कुछ भी नहीं मिला.

ब्राहमण का वध करने के बाद हताशा आदिवासियों ने अपने वचनानुसार उन्चारों सेठों को वहां से जाने की अनुमति दे दी.

कथा-सार

ब्राहमण चोरी करने की नीयत से सेठों के पीछे लगा जरुर था, लेकिन अपने मूल संस्कारों को भील नहीं था. यही कारण था कि जब पांचों की जान पर बन आई तो उसने पाने प्राण देकर चारों सेठों की रक्षा की. ब्राहमण चोर जरुर था, पर बुद्धि ने उसका साथ नहीं छोड़ा था. इसीलिए कहा गया है-‘मूर्ख मित्र की अपेक्षा बुद्धिमान शत्रु कहीं स्धिक हितकारी होता है.

 

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