panchtantra ki kahaniya

पावन सलिला गंगा तट पर वीतरागी तपोधन महात्मा रहते थे। वह प्रतिदिन बहुत सवेरे उठकर स्वच्छ, निर्मल और पवित्र गंगाजल में स्नान करते और फिर तपस्या में लीन हो जाते थे। महात्मा तपोधन उस वन में सहज उपलब्ध कन्द-मूल और फलों को खाकर तथा जनेऊ धारण करके भगवद् भजन में अपने जीवन को सफल करते थे। उनकी निष्काम तथा सर्वदा विरक्त भाव की साधना से उन्हें ढेरों सिद्धिया प्राप्त ही गई थीं।

एक दिन जब वह स्नानादि से निवृत होकर पितरों, देवों और महर्षियों को तर्पण कर रहे थे तो एक बाज के चंगुल से छुटी एक चुहिया को सुरक्षित स्थान पर रखकर पुनः स्नान और आचमन आदि किया और फिर समाधि में लीन हो गए। समाधि से उठे तो उस चुहिया की ओर ध्यान गया।

महात्मा ने मन्त्रोच्चारण करके उस चुहिया पर जल छिड़का, जिससे वह एक सुंदर कन्या में परिवर्तित हो गई।

उस कन्या को लेकर महात्मा अपने आश्रम में आए और अपनी सन्तानहीन पत्नी से बोले-‘प्रिये! अपनी बेटी समझकर इसका पालन-पोषण करो।’

‘स्वामी! यह कन्या तो बहुत रूपवती है, इसलिए मैं इसका नाम रूपवती रख देती हूं।’ महात्मा की पत्नी ने खुशी-खुशी उसका नामकरण करते हुए कहा।

महात्मा की पत्नी की देख-रेख में रूपवती का पालन-पोषण होने लगा। महात्मा तपोधन भी रूपवती का काफी ख्याल रकते थे। रूपवती पूनम के चांद की तरह बढ़ने लगी और धीरे-धीरे वह युवा हो गई।

महात्मा तपोधन की पत्नी ने रूपवती के युवावस्था में कदम रखते ही पति से कहा-‘स्वामी! अब हमारी बेटी रूपवती युवा हो गई है, अतः हमें इसका विवाह करके कन्यादान का पुण्यलाभ कमा लेना चाहिए।’

अपनी पत्नी के विचार सुनकर महर्षि तपोधन सोच मे पड़ गए। वह सोचने लगे-उनकी पत्नी ठीक ही कह रही है। कन्या के युवावस्था में कदम रखते ही उसका विवाह कर देना उचित है। लेकिन कन्या लिए वर में सात तरह के गुण होने चाहिए। उच्च कुल, अच्छा स्वभाव सिर पर माता-पिता की छत्रछाया, धन, स्वस्थ शरीर तथा समान आयुवाला वर ही सदा उपयुक्त होया है। जिस लड़के में यह सातों गुण मिलते हों उसे अपना दामाद बनाने में कदापि विलम्भ नहीं करना चाहिए।

अपनी पुत्री रूपवती के लिए उपयुक्त वर के संबंध में विचार करते हुए महात्मा तपोधन ने सबसे पहले सूर्यदेव को निमंत्रित किया। दुर्यदेव ने प्रकट होकर महात्मा से बुलाने का कारण पूछा-‘महर्षि तपोधन! किस प्रयोजन हेतु मुझे आमंत्रित किया गया है?’

‘मैं अपनी पुत्री रूपवती से आपका विवाह करना चाहता हूं। आप जैसा वर पाकर मेरी कन्या धन्य हो जायेगी।’ महर्षि तपोधन ने सूर्यदेव से विनम्र निवेदन किया।

‘महर्षि! पहले अपनी पुत्री से तो पूछ लीजिए। मुझ जैसे दहकते हुए अंगारे रूपी वर को अपना पति स्वीकार  करेगी या नहीं।’

महर्षि तपोधन ने रूपवती को बुलाकर उससे पूछा-‘बेटी! हम सूर्यदेव ए तुम्हारा विवाह करना चाहते हैं। क्या तुम्हें स्वीकार है?’

‘नहीं! क्योंकि या काफी गरम और ज्वालामुखी के समान हें।’ रूपवती ने इन्कार करते हुए कहा।

रूपवती का जवाब सुनकर महर्षी तपोधन ने सूर्यदेव से अधिक उत्कृष्ट वर बताने का अनुरोध किया, तो सूर्यदेव ने कहा-‘महर्षि! मुझसे भी उत्कृष्ट वर मेघ है। वह मुझे इस पारकर ढंकने की क्षमता रखता है कि मै पूर्णतः अदृश्य हो जाता हूं। वह जलपूर्ण होने के कारण शीतल भी है।’

महर्षि तपोधन ने सूर्यदेव को विदा करके मेघ को आमंत्रित किया। मेघ ने महर्षि के सामने उपस्थित होकर कहा-‘मुनिश्रेष्ठ! आपने मुझे कैसे अपनी कन्या के लिए उपयुक्त वर मान लिया?’

‘ क्योंकि तुम्हारे अन्दर सूर्यदेव तक को ढंक लेने की क्षमता है, और जो सूर्य के तेज को अदृश्य कर दे उससे अधिक उपयुक्त वर मेरी कन्या के लिए कोई हो ही नहिं सकता।’ महर्षि तपोधन ने कहा।

‘ अपनी कन्या से तो पूछ लो मुनिवर।’ मेघ ने मुस्कराते हुए कहा।

रूपवती ने आकर मेघ से भी विवाह करने से इन्कार कर दिया।इस पर मेघ ने कहा-‘महर्षि! मेरी दृष्टि  में वायुदेव  मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं। वह मुझे पलभर में उड़ाकर छिन्न-भिन्न कर देते हैं।’

महात्मा तपोधन ने मेघ को जाने की अनुमति दे दी और वायुदेव को आमंत्रित किया। वायुदेव ने महर्षि तपोधन के सामने प्रकट होकर पूछा-‘महात्मा तपोधन मुझे किस प्रयोजन के लिए आमंत्रित किया गया है?’

‘मैं अपनी पुत्री रूपवती का विवाह तुम्हारे साथ करना चाहता हूं।’महर्षि तपोधन ने कहा।

‘यह काफी गतिमान हैं, इन्हें पकड़ना आसान ही नही बल्कि असम्भव है। इसलिए हें पिताश्री! मैं इनसे विवाह नहीं करूंगी। रूपवती ने वहां आकर वायुदेव से भी विवाह करने से इन्कार कर दिया। इस पर वायुदेव ने महात्मा तपोधन से कहा-‘महात्मन्, मुझसे अधिक समर्थ और शक्तिशाली तो पर्वत हैं, जो मेरी गति को कुंठित कर देते हैं और मैं उनका बाल भी बांका नहीं कर पाता।’

महात्मा तपोधन ने वायुदेव को विदा और पर्वतराज का आवाहन किया। लेकिन रूपवती ने उनसे भी विवाह न करने का फैसला सुनाते हुए कहा-‘यह तो अत्यन्त कठोर और स्थिर हैं, अतः यह मेरे योग्य नहीं हैं।’

रूपवती के यह वचन सुनकर पर्वतराज ने कहा-‘महर्षीवर! मुझसे अधिक शक्तिशाली तो चूहा है, जो मेरे शरीर में छेद करके मुझे व्यथित करता रहता है।’

पर्वतराज को विदा करके महात्मा तपोधन ने चूहे को बुलाया। चूहे को देखते ही रूपवती उछलने-कूदने लगी और बोली-‘पियाश्री! यही मेरे लिए योग्य वर है। मैं इसी से शादी करूंगी।’

पुत्री मोह में महात्मा तपोधन यह भूल ही गए थे कि उन्होंने रूपवती को चुहिया से मनुष्य बनाया था। उन्होंने रूपवती को तुरन्त चुहिया बना दिया और तेजस्वी और शक्तिशाली महानुभावों को छोड़कर चूहे से उसका विवाह कर दिया।

कथा-सार

सजातीय के प्रति आत्मीयता का होना मानव-सुलभ स्वाभाविक दुर्बलता होती है। मनुष्य जीवन प्राप्त कर लेने पर भी रूपवती अपनी जाति विशेष को भूल नहीं पाई और उसके प्रति उसका आकर्षण बना रहा।

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