panchtantra ki kahaniya

पंडित रामशंकर यजमानी करके दुसरे गांव से अपने घर की और लौट रहा था. वह बहुत प्रसन्न था क्योंकि दक्षिणा में उसे बकरी मिली थी. पंडित रामशंकर की ख्याति आसपास के गांवों में फैली हुए थी. रास्ते से गुजरते समय बीच में बियावान जंगल पड़ता था और पंडितजी की मारे दार के घिग्गी बंधी जा रही थी क्योंकि जंगल में चोर-लुटेरों व ठगों की भरमार थी और वे किसी भी राह चलते को लूट लेते थे. जंगल शुरू होते ही पंडितजी ‘राम-राम’ जपते हुए रास्ता पार करने लगे. भय था कि कोई उन्हें लूट न ले.

कुछ रास्ता पार कर लेने के बाद पंडितजी को हौसला बंधा और भय को मन का वहम समझकर बडबड़ाने लगे-मुझ गरीब दरिद्र पंडित को कौन लूटेगा? कोई भी ब्राम्हण का अहित कभी नहीं चाह सकता. दक्षिणा में मिली बकरी लिए पंडितजी आगे बढ़े जा रहे थे-मुंह से ‘राम-राम’ के बोल निकल रहे थे.

उसी जंगल में चार धूर्त ठग भी टकटकी लगाए अपने शिकार की प्रतीक्षा में थे. जब उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति दुधारू बकरी लिए चला आ रहा है तो उनकी बांछे खिल गई.

‘वह देखो-हमारा शिकार चला आ रहा है.’ एक ठग ने अपने साथी से कहा.

दूसरा बोला, ‘कह तो तुम ठीक रहे हो, पर वह कोई कर्मकांडी ब्राह्मण लगता है. उसे मारकर बकरी छिनने पर हम ब्रम्हहत्या के दोषी हो जाएंगे, हमें नरक में भी स्थान नहीं मिलेगा.’

‘मित्रो! बकरी तो हमें किसी भी कीमत पर उससे लेनी ही लेनी है, बल से न सही तो चल से सही.’ तीसरे ठग ने अपनी राय दी.

चारों सोचने लगे कि अब क्या किया जाए? ठगों का मुखिया बहुत ही तीक्ष्ण बुद्धि का स्वामी था. बोला, ‘मैंने रास्ता निकल लिया है.’

चारों कान जोड़कर बैठ गए और मुखिया उन्हें अपनी योजना से अवगत कराने लगा. मुखिया की बात पूरी होते ही चारों खुशी से नाचने लगे और मुक्तकंठ से योजना की सराहना करने लगा.

जैसी उनकी योजना थी, उसके अनुसार दो ठग तो वहीं पास में खड़े रहे और दो आगे बढ़ गए. ज्योंही पंडित रामशंकर उनके निकट पहुंचे तो एक ठग बोला, ‘जय रामजी की पंडितजी!’

‘पांय लागूं ब्राह्मण देवता.’ दूसरा ठग भी बोल उठा.

पंडितजी ने उनके अभिवादन के प्रत्युत्तर में उन्हें आर्शिर्वचन कहे. तभी एक ठग बोल उठा, ‘महाराज! यह कुता तो किसी अच्छी जाति का लगता है-कहां से मिला?’

पंडितजी ने हैरान-परेशान होकर बकरी की ओर देखा और बोले, ‘अरे ओ जड़बुद्धि मनुष्य! यह बकरी तुझे कुता तो देखाई दे रही है, यह तो मुझे दक्षिणा में मिली है.’

दूसरा ठग जो अवसर की ताक में बैठा था, बोला, ‘विप्रवर! आपको जरुर कोई भ्रम हो रहे है, जरा गौर से देखिए, यह तो कुता ही है. किसी ने आपको साथ मजाक किया है.’ कहकर वे दोनों ठग वहां से चले गए और इधर पंडितजी सोच में डूबे बार-बार बकरी को देखते हुए सोचने लगे-दोनों आदमी इसे कुता कह रहे थे, कहीं यही तो सच नहीं. किसी प्रकार मन को काबू करके वे बकरी लेकर आगे बढ़ गए.

अभी वह कुछ ही दूर चले थे कि योजनानुसार वहां खड़े शेष दोनों ठग उन्हें अपलक देखने लगे. पंडितजी ने सोचा, कौन हैं ये लोग, जो मुझे इस प्रकार से घुर रहे हैं.

तभी उनमें सैट एक आगे बढ़ा और पंडितजी के चरणों में झुकता हुआ बोला, ‘चरणवंदन स्वीकार करें.’ अभी पंडितजी जवाब में कुछ कहने जा ही रहे थे की वह आगे बोला, ‘यह कुता लिए आप कहां से आ रहे हैं? क्या आपके गांव में कुते कम हैं. को इसे लिए जा रहे हैं?’

पंडितजी ने हैरान-परेशान होकर बकरी की और देखा और कुछ सोचकर बोले, ‘अरे भाई! आंखें नहीं हैं क्या? देखते नहीं यह बकरी है…बकरी; और तुम इसे कुता कह रहे हो?’

‘नहीं-नहीं पंडितजी, धोखा तो आपको हुआ है-यह कुता ही है.’ तभी चौथा ठग बीच में हस्तक्षेप करता हुआ बोला, ‘पंडितजी! आप तो नाहक कुपित हो रहे हैं. ठीक तो कह रहा है यह बेचारा-कुते को कुता न कहे तो क्या कहे/’

अब पंडितजी के सब्र का बांध टूट गया-वह जोर से चिल्लाकर बोले, ‘मैं पागल हो जाऊंगा. कैसे मूर्खों से पाला पड़ा है, जो बकरी को कुता बता रहे हैं.’

‘महाराज, हमारी आपसे कोई शत्रुता तो है नहीं, जो हम ऐसा कह रहे हैं. मुर्ख तो आपको बनाया गया है, जो बकरी कहकर कुता दान में दे दिया.’

अब पंडितजी रामशंकर की दशा ‘आगे समुद्र पीछे खाई’ जैसी हो गई. उन्हें विश्वास हो गया कि जो वह दक्षिणा में ला रहे हैं, वह कुता ही है,बकरी नहीं. उन्होंने उसे वहीं जंगल में छोड़ दिया और अपने यजमान को कोसते हुए घर की ओर चल दिए. इस प्रकार ठगों ने चतुराई दिखाकर पंडितजी की बकरी हथिया ली.

कथा-सार

आत्मविश्वास बहुत बड़ी चीज है. भेड़चाल में फंसकर कोई भी काम करना मूर्खता ही कहलाएगा. चार-पांच आदमी भरी दोपहरी को रात कहें तो रात नहीं हो जाएगी, लेकिन मुर्ख व्यक्ति भ्रमित अवश्य हो सकता है. पंडितजी के साथ भी ऐसा ही हुआ-चार ठगों ने उनकी बकरी को कुता कहा और वह भी ऐसा ही समझे. परिस्थितियां पहचानकर स्वविवेक से निर्णय करनेवाला प्राणी ही बुद्धिमान कहलाता है.

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